Wednesday, September 30, 2020

प्रेम उपदेश

 प्रेम उपदेश / (परम गुरु हुज़ूर महाराज)


            40. ऐसे ऐसे बंधन और अटकें और क़ैदें पड़ी हुई हैं कि जैसा मन चाहता है कोई भी काम नहीं बनता है और कुछ अभी नहीं, हमेशा से ऐसी मौज देखने में आई है कि जिस क़दर कोई मन से इरादा निकलने का करे, उसी क़दर ज़्यादा बाहरी बखेड़े बढ़ते जाते हैं और चाहे वे बखेड़े और रगड़े असली होवें चाहे केवल देखने मात्र के, पर इस जीव को दुःख देने और तंग करने और सुस्त रखने और कभी कभी निराश करने और बिलकुल इसका बल तोड़ने को बहुत भारी मालूम पड़ते हैं। और जो चाहें कि इन झमेलों के साथ तोड़ फोड़ कर चरनों में लिपट जावें, तो ऐसा भी नहीं होता और जो इधर ही के काम को पहले पूरा करना चाहें, तो वह भी, जिस तरह और जैसा जल्दी इसका मन चाहता है, नहीं बन पड़ता बल्कि और दुःख देता है और घबराहट को बढ़ाता है। यह हालत इस जीव की है कि चाहे जितना जतन करे, मन के घाट से नहीं हटता और बारंबार उधर ही को झोका खाता है। इसमें बड़ी लाचारी है पर इसमें भी कुछ मसलहत सफ़ाई मन और बुद्धि की और तोड़ने उनके बल और भरोसे की है।

            41. सतगुरु दयाल परम पुरुष पूरन धनी राधास्वामी की दया बड़ी भारी है, पर वे क्या करें। इस जीव के बंधन मन और तन और इंद्रियों के संग बड़े गाढ़े हैं और जुगानजुग से बँधे चले आये हैं और पुरानी आदत उन्हीं के संग बरताव की ज़बर पड़ रही है और जोकि वे अपनी मेहर और दया से छुड़ाते हैं, पर यह छूटने में भी महा दुखी होता है और मरा जाता है और टूटने को तैयार होता है। तब वे फिर छोड़ देते हैं और इसकी हालत पर दया करते हैं और आहिस्ता आहिस्ता निकालना मुनासिब समझते हैं, एक दम के निकालने के लायक़ जीव को नहीं देखते। और ज़बरदस्ती करना मंज़ूर नहीं है, अलबत्ता काम बनाना मंज़ूर है और यह काम आहिस्ता आहिस्ता बन सकता है। जैसा कि जीव बहुत मुद्दत से भूला और भरमा हुआ है, ऐसे ही आहिस्तगी के साथ इसकी भूल और पुरानी आदतें दूर होवेंगी।

            42. और मालूम होवे कि काम के बनाव में किसी तरह का संदेह नहीं है, क्योंकि हुज़ूर राधास्वामी दयाल ने अपनी दया से सब सेवकों के हृदय में अपनी प्रीति और प्रतीति थोड़ी या बहुत बख़्शिश कर दी है। और जोकि मन अनेक रंगों की तरंगों में बहता है, पर जो हुज़ूर राधास्वामी दयाल के चरनों की थोड़ी बहुत प्रीति सुरत और मन में धरी है, उसका भी ख़्याल और सोच उसको अक्सर आता रहता है।

            43. ज़्यादा बड़भागी वे हैं कि जिनके सदा तड़प और बेकली हृदय में छाई रहती है और मन को दूसरी तरफ़ जाने नहीं देते, और जो जाता भी है तो उसको वहाँ ठहरने नहीं देते और कुरंग की तरंगों के उठाने में उसको धिक्कार देते रहते हैं। यह सब दर्जे सतगुरु के चरनों की प्रीति और बिरह के हैं। जिसको जितनी बख़्शिश है, उतना ही उसको अपने मन में फ़ायदा और असर उसका मालूम होता है। पर जो एक दम और बिलकुल मन के घाट और बाट से न्यारा होना चाहता है, तो यह जब तक कि अभ्यास करके पिंड से न्यारा न होगा, तब तक नहीं हो सकता। इस वास्ते जल्दी और घबराहट नहीं चाहिए।

राधास्वामी

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