*सतसंग के उपदेश/ भाग-2
*(परम गुरु हुज़ूर साहबजी महाराज)*
बचन (41)
*बन्धन व फ़र्ज़ में बड़ा फ़र्क़ है।*
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दुनिया का अजीब इन्तिज़ाम है। इधर तो क़ुदरत ने माँ बाप के दिल में औलाद की चाह धर दी है, उधर यह क़ायदा कर रक्खा है कि बहुत से वाल्दैन के क़तई औलाद (सन्तान) नहीं होती और जिनके होती है तो अक्सर छोटी उम्र में या कुछ बड़ी हो कर मर जाती है। जिन शख़्सों के औलाद नहीं होती वे उसके लिये जहान भर की कोशिशें करते हैं। कोई दवा दारू ऐसी नहीं जिसे वे खाने के लिये तैयार न हों, कोई हकीम डाक्टर ऐसा नहीं जिसके दरवाजे़ की हाज़िरी से उन्हें इन्कार हो और मालिक से लेकर भूत पलीत तक कोई ऐसी गुप्त शक्ति नहीं जिसका दरवाज़ा खटखटाने में उन्हें शर्म हो।
बेचारे ग़रज़बस बावले" होकर तरह तरह की मुसीबतें व नुक़्सान उठाते हैं और जब तक उनका मनोरथ पूरा नहीं हो जाता अपनेतईं जीते जी मरा समझते हैं। दवा इलाज या पूजा पाठ कराने पर जब किसी ग़रीब की आरज़ू पूरी हो जाती है तो बेतरह ख़ुशियाँ मनाता है और जिस देवता की पूजा करते करते औलाद हुई है उसी को सच्चा करतार और कुल मालिक समझने लगता है।
अर्से तक उसके ख़ान्दान में बल्कि उसके जुम्ला संगी साथियों के घर में उसी देवता का सेवन रहता है और इस तरह समझ बूझ का कहना एक तरफ़ रख कर लोग क़िस्म क़िस्म के इष्ट धारण करते हैं और जब कुछ अर्से बाद उनकी औलाद मर जाती है तो जो कष्ट उनको होता है उसका अन्दाज़ा लगाना हर इन्सान के लिये कठिन है।
ऐसे शख़्सों के अलावा बहुत से ऐसे लोग भी हैं जिनके औलाद मामूली तौर से हो जाती है और वे लड़का या लड़की के मर जाने पर सख़्त दुख महसूस करते हैं। ख़ास कर बुढ़ापे की उम्र में औलाद का सदमा सख़्त रंज का बायस होता है।*
आज कल इस मुल्क़ में, जहाँ बच्चों की मौतों की तादाद बहुत ज़्यादा है, क़रीबन् हर वाल्दैन को इस मुसीबत का सामना करना पड़ता है। क्या यह इन्सान पर सरासर ज़ुल्म नहीं है कि पहले उसके दिल में औलाद की ख़्वाहिश डालना, फिर उसे औलाद न देना और अगर देना तो अचानक उससे रोते पीटते और चिल्लाते बिल्लाते छीन लेना? ज़ाहिरन् ज़ुल्म ज़रूर है मगर ग़ौर करो कि इन्सान को किसने कहा था कि औलाद में मोह व ममता क़ायम करो। शादी की ख़्वाहिश ज़रूर क़ुदरत ने उसके अन्दर पैदा की मगर इसलिये कि दूसरी सुरतों (आत्माओं) को इन्सानी चोले में अवतार लेने का मौक़ा मिले।
लेकिन इसकी वजह से सिर्फ़ इस क़दर इजाज़त है कि इन्सान बख़ुशी शादी करें और जिस वाल्दैन के घर औलाद पैदा हो वे उसकी मुनासिब पर्वरिश करें लेकिन यह इजाज़त नहीं है कि जिनके घर औलाद पैदा न हो वे उसके लिये हद से ज़्यादा कोशिशें करें या अगर बावजूद हर तरह की ख़बरगीरी के औलाद मर जाय तो नाहक़ परेशान ख़ातिर हों। इन्सान ख़ुद ही मोह व ममता में पड़कर अपने लिये आयन्दा मुसीबत के सामान इकट्ठा करता है और क़ुदरत को इलज़ाम लगाता है।
छोटी उम्र में बच्चे की भोली सूरत और सादे बोल चाल से माँ बाप के दिल में गहरी मोहब्बत क़ायम हो जाती है और बड़े होने पर उससे उम्मीदें बाँध लेने से ज़बरदस्त ग़रज़मन्दी पैदा हो जाती है और नतीजा यह होता है कि औलाद के गुज़र जाने पर माँ बाप दोनों की ज़िन्दगी तलख़ हो जाती है।
*काश जिस क़दर मोहब्बत इन्सान अपनी औलाद के साथ करता है उसका आठवाँ हिस्सा भी सच्चे मालिक के चरणों में करे तो न सिर्फ़ दुनियवी दुख सुख उसके नज़दीक फटकने न पावेंगे बल्कि वह हँसता खेलता हुआ जन्म मरण के चक्र से बाहर हो कर अमर व अविनाशी आनन्द को प्राप्त होगा।*
राधास्वामी
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