"कृष्ण कह रहे हैं कि तू सब छोड़ दे। बुरा— भला सब मुझ पर छोड़ दे। तू जो भी कर रहा है, उसमें तू करने वाला मत रह। तू जान कि मैं तेरे भीतर से कर रहा हूं। तू ऐसा अर्पित हो जा।
कर्म छोड़ने को वे नहीं कह रहे हैं। इसलिए कृष्ण ने जो बात कही है, वह अति क्रांतिकारी है। कर्म छुड़ा लेने में बहुत कठिनाई नहीं है। आदमी कर्म छोड़कर जंगल जा सकता है। लेकिन कर्ता छुड़ा लेना असली कठिनाई है। और आदमी जंगल भी चला जाए कर्म को छोड़कर, तो यह अकड़ साथ चली जाती है कि मैं सब कर्मों को छोड़कर चला आया हूं। कर्ता पीछे साथ चला जाता है। कर्म तो बस्ती में छूट जाएंगे, कर्ता नहीं छूटेगा। कर्ता आपके साथ जाएगा। वह आपकी भीतरी दशा है। आप मकान छोड़ देंगे, घर—दुकान छोड़ देंगे, काम— धाम छोड़ देंगे, सब तरफ से निवृत्त होकर भाग जाएंगे जंगल में, लेकिन वह जो भीतर कर्ता बैठा है, वह इस निवृत्ति के ऊपर भी सवार हो जाएगा। निवृत्ति भी उसी का वाहन बन जाएगी। और जाकर जंगल में, वह अकड़ से कहेगा कि सब छोड़ चुका हूं। यह छोड़ना कर्म हो जाएगा। यह त्यागना कर्म हो जाएगा। और अहंकार इससे भी भर लेता है।
इसलिए कृष्ण ने कहा, कर्म छोड़कर कुछ भी न होगा अर्जुन, कर्ता को छोड़ दे!"
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आदमी कर्ता क्यों बनता है?
भोक्ताभाव के कारण।उसे सुख चाहिए।सुख की तलाश में वह कर्ताभाव से कर्म करता है।उसे जो चाहिए वह कभी मिल जाता है,कभी नहीं मिलता।मिल गया तो खुश,न मिला तो दुखी।
इसलिए गीता ने सूत्र दिया-तेरा अधिकार कर्म में,फल में नहीं।'
फल तो कुछ भी करेंगे आता ही है परंतु यहां आशय हुआ भोक्ताभाव त्याग दे।भोक्ताभाव से कर्म मत कर ।
कर्म होंगे।उसे होने दे।उसके परिणाम भी आयेंगे पर कोई लोभ,कोई आतुरता,व्यग्रता न होगी।
ईशावास्योपनिषद में कहा है-
"ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृध:कस्य स्विद् धनम्।।
अखिल ब्रह्मांड मेंं जो कुछ भी जड-चेतनस्वरुप जगत् है यह समस्त ईश्वर से व्याप्त है।उस ईश्वर को साथ रखते हुए त्यागपूर्वक भोगते रहो।आसक्त मत होओ।क्योंकि धन-भोग्यपदार्थ किसका है?"
हर चीज ईश्वर से व्याप्त है तो भोगदृष्टि से कैसे भोगा जा सकता है,सिर्फ त्यागभाव से उपयोग किया जा सकता है।
भगवान का प्रसाद भोगदृष्टि से नहीं खाया जाता,त्यागदृष्टि से श्रद्धापूर्वक लिया जाता है।
उसमें भोक्ताभाव का होना संभव नहीं है।
भोक्ता कौन है?अहंकारविमूढ आत्मा।
मैं कर्ता हूं,मैं भोक्ता हूँ-ऐसी मान्यता कर्म और फल में लगाती है।उसके अच्छेबुरे परिणाम आते हैं।
यह मान्यता झूठी है क्योंकि मूर्छा में से,नासमझी में से आयी है।
यहां सब हो रहा है।यह दृष्टि रहे तो सजगता बनी रहेगी।
मैं कर रहा हूँ क्योंकि मुझे अमुक सुख चाहिए तो सजगता चली जाती है।
आपाधापी का जो जीवन है उसीके कारण है।
क्या हम शांत,सहज,संतुलित जीवन नहीं जी सकते ?
जी सकते हैं यदि अहंकारपूर्वक करने और भोगने का भाव न हो।
अहंपूर्ण कर्ताभोक्ता भाव में किसीकी मदद भी नहीं हो सकती।आदमी कुछ करेगा तो वह भी पुण्यदृष्टि से करेगा ताकि उसे फलस्वरूप सुखसमृद्धि की प्राप्ति हो।
उसके लिये वस्तुओं का त्यागपूर्वक उपयोगमात्र तक सीमित रहना मुश्किल है।उसे ऐसी अवस्था सुखरहित,नीरस मालूम होती है।भोक्ताभाव हो तो वस्तु के उपभोग से सुख मिलता है।
अतःयह तो उसके लिये है जो समझे।वह हर चीज को ईश्वर से जोड देता है।इससे हर चीज पवित्र हो जाती है,श्रद्धा की पात्र हो जाती है जिससे कर्ताभोक्ता का लोभ तथा आतुरता शांत हो जाते हैं।जीवन व्यवस्थित हो जाता है।
अतः मूल आशय को समझना है।कर्म नहीं छोडना है,कर्ताभाव छोडना है।धनादि वस्तुओं के उपयोग को नहीं छोडना है,लोभी भोक्ताभाव को छोडना है।
हम रोज सुनते हैं आज ये चले गये,कल वे चले गये।बहुत प्रोपर्टी थी।कुछ नहीं हो सकता।सिर्फ एक प्रकार का मानसिक सुख मिल रहा था।क्या हुआ?
वास्तविकता तो कुछ और है।किसी ने ठीक ही कहा है-
'वह खाली हाथ भेजता है और खाली हाथ ही वापस बुला लेता है।'
बीच में कुछ समय है जब
कई चीजें होती हैं साथ में।अब यह उसकी समझ पर निर्भर है कि वह उन चीजों का सदुपयोग करता है या दुरुपयोग या कोई उपयोग नहीं करता।
कस्य स्विद् धनम्-यह धन किसका है अर्थात् किसीका भी नहीं।
अपना मानकर कोई गर्व से फूल रहा है,कोई अभाव में हताशा झेल रहा है।तथ्य को समझ लिया तो नुकसान होने पर वेदना नहीं होती,लाभ हो तो सहजता बनी रहती है।वह उन प्रभावों से मुक्त समता का जीवन जीने में सफल होता है।यही सफलता असली सफलता है बाकी सब द्वंद्व है,तनाव है,संघर्ष है।
यह भुला दिया जाता है कि खाली हाथ ही भेजा गया था और खाली हाथ ही वापस बुला लिया जायेगा।कोई जोर जबर्दस्ती न चलेगी।जिस शरीर के आधार पर इतना करते हैं वही छूट जाता है और बातें तो दूर।
यह संसार न भागने के लिये बना है,न भोगने के लिये बना है अपितु वस्तुस्थिति को समझकर जीने के लिये ही बना है।
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