Tuesday, September 15, 2020

दयालबाग़ सतसंग 15/09

 राधास्वामी!!-15-09-2020-

 आज शाम के सतसंग में पढे गये पाठ- 

                               

(1) हंसनी क्यों न सुने गुरु बानी। जग सँग रहत मिलानी।।-(राधास्वामी काज करें तेरा पूरा। उनके चरन में सुरत समानी।।) (प्रेमबानी-3-शब्द-26,पृ.सं.369-70)                                                  

(2) बिरह को मत छेडिये बुरी बिरह की छेड। छेडे पर छाँडे नहीं बहुत करेगी जेर।। हिरदा सूना साँई बिन साँय साँय नित होय।अस सूने संगी सदा बिना बिरह को होय।।-(जीवन मेरा हाथ तुम और न कोई उपाय। जो चाहो मोहि राखना प्रेमबुंद बरसाय।।) (प्रेमबिलास-शब्द-52,पृ.सं.68-69)                                        

  (3) यथार्थ प्रकाश-भाग पहला-कल से आगे।                 🙏🏻राधास्वामी🙏🏻


राधास्वामी!! 15-09 -2020 -

आज शाम के सत्संग में पढ़ा गया बचन

- कल से आगे-

【 धर्म की लहरें और राधास्वामी मत】-( 110 )

 एक समय था जब संसार में मनुष्य की दशा नवजात शिशु की सी थी। उसे न अपनी मानसिक और न आध्यात्मिक शक्तियों का कुछ ज्ञान और न सृष्टि के नियमों का कुछ अभिज्ञान था। वह प्रकृति की शक्तियों के हाथ में कठपुतली के समान नाचता था और अपनी इच्छाओं तथा प्रकृति घटनाओं में परस्पर उनका मेल न पाकर अपनी असमर्थता तथा विवशता से व्याकुल था। वह अपने को संसार- सागर में उस नौका के तुल्य अनुभूत करता था जिसकी पतवार टूट गई है और पाल फट गए हैं और जिसे समुन्द्र की तरंगे थपेड कर कभी इधर कभी उधर ढकेलती है। फिर एक समय आया जबकि संसार में धार्मिक नेताओं का आविर्भाव और धार्मिक शिक्षा का प्रादुर्भाव हुआ। मनुष्य को धर्म के रहस्यपूर्ण तत्वज्ञान तथा भविष्य जीवन के सुखों की प्रतिज्ञाओं से नितांत संतोष प्राप्त हुआ। 

और उसने धर्म को सच्चा मित्र जानकर उसकी संगति में जीवन व्यतीत करना श्रेय समझा । इधर धर्म ने भी अपनी ओर से उसके दु:ख कलेश मिटाने और उत्साह बढ़ाने में कुछ उठा नहीं रक्खा । मनुष्य के मस्तिष्क ने धार्मिक विचारों से प्रोत्साहित होकर प्रकृति की शक्तियों को वशीभूत करने और प्राकृतिक नियमों पर विजय की प्राप्ति के संकल्प दृढ किये। 

भाँति भाँति की पूजाएँ प्रचलित हुई। भिन्न-भिन्न सिद्धांत आविष्कृत हुए। प्रतिदिन की घटनाओं, जीवन मरण , शीत-उष्ण, प्रकाश -अंधकार आदि के संबंध में अन्वेषनाएँ होने लगी। पृथ्वी ,चंद्रमा ,सूर्य और तारों के रहस्य का अनुसंधान हुआ और मनुष्य अपने को सृष्टि का एक महान अंग अनुभव करने लगा । और जोकि ये सब विभूतियाँ धर्म के संसर्ग से प्राप्त हुई थी इसलिए स्वाभावितया उसने धर्म को पर्याप्त गौरव दिया। यहां तक कि अपने को प्रकृति की शक्तियों के स्वेच्छाचारों तथा अत्याचारों से सुरक्षित करने की आशा से अपने चारों और धार्मिक कर्मकांड की प्रकांड प्राचीर(चाहरदीवारी) निर्मित कर ली।  यदि कभी अनावृष्टि होती अथवा अतिवृष्टि हो जाती तो धर्म की दोहाई दी जाती थी ।

कभी व्याधि या मरी का आक्रमण हुआ तो धर्म से गोहार की जाती थी। और अन्न के बोने पर, अन्न के पकने पर और अन्न के कटने पर, बच्चे के जन्म ग्रहण करने पर, यौवन में पदार्पर्ण करने पर , संसार से प्रयाण(कूच करना) करने पर धर्म ही का स्मरण होता था। हिंदुओं के सोलह संस्कार तथा वेदो, ब्राह्मणों और अन्य शास्त्रों में लिखी हुई पूजाएँ और यज्ञ इन बातों के साक्षी है।

 धर्म को इतना महत्व मिलने से स्वभावतः  धार्मिक शिक्षा के संरक्षको को अर्थात ऋषियों, पंडितों आदि को भी अत्यधिक गौरव प्राप्त हुआ। और क्रमशः  यह विश्वास फैल गया कि ईश्वर या मालिक धर्म का प्रेमी है और वह केवल धार्मिक नियमों के पालन करने से प्रसन्न होता है। 

एवंच उस समय के महापुरुषों ने समझाया कि मनुष्य के ऊपर जितनी आपत्तियाँ आती है वे किसी न किसी धार्मिक नियमों के उल्लंघन करने से आती है, और जीवन को सुखी बनाने और प्रकृति की शक्तियों पर शासन करने के लिए धर्म की सहायता अनिवार्य है। 

तात्पर्य यह कि इस प्रकार संसार में दीर्घकाल तक धर्म का डंका बजता रहा और संसार की समस्त जनता सहर्ष धर्म तथा धर्म के संरक्षकों के चरणों में पूर्ण श्रद्धा से नत्मस्तक रही।।                      

🙏🏻 राधास्वामी🙏🏻       

                                                       

 यथार्थ प्रकाश- भाग पहला- 

परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज!


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