**परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज-
【 स्वराज्य】-
कल से आगे -
(दूसरा दृश्य)-
स्थान- जंगल । [बरगद के एक बड़े पेड़ के नीचे कई ऋषि जमा हैं। कोई हाथ उठाये हैं- कोई उलटा लटक रहा है- कोई एक टांग के बल खड़ा है- कोई पद्मासन जमाए बैठा है। उग्रसेन उनके पास पहुंचता है]:-
उग्रसेन - परम ऋषियों को नमस्कार! एक ऋषि-( जो सबसे बूढा है और मामूली आसन से बैठा है- बाएँ हाथ से माला चलाकर और दायाँ हाथ ऊपर उठाकर) मंगल! मंगल!!
[ उग्रसेन नमस्कार करके बैठ जाता है]
ऋषि - कहो अभी कुछ समझ में आया?
उग्रसेन- महाराज! अभी तो कुछ समझ में नहीं आया- मन वैसा ही चंचल और मलिन है।
ऋषि- हमने तो पहले ही दिन कह दिया था कि बगैर तप किये कुछ प्राप्त न होगा- शांति केवल तप ही से प्राप्त हो सकती है।
उग्रसेन- मैं कैसे मान लूँ कि शरीर को कष्ट देने से शांति मिल सकती है?
ऋषि- शरीर ही मन को चलायमान करता है ।उग्रसेन- शरीर तो जड़ है।
ऋषि-( नाराज होकर) क्या बकते हो? उग्रसेन-( हाथ जोड़कर) अपराध क्षमा हो। ऋषि-श्वास के चलने से मन चलायमान होता है और श्वास लेना शरीर की क्रिया है इसलिए शरीर ही के कारण तो मन चलायमान होता है?
उग्रसेन- अगर आज्ञा हो तो कुछ निवेदन करूँ? ऋषि- क्या अब भी कोई भ्रम है? उग्रसेन- महाराज ! अब यह बात मेरी समझ में नहीं आई।
ऋषि- क्या शरीर स्वास नहीं लेता? उग्रसेन-जी नहीं। ऋषि -तो मान लेता है?
उग्रसेन- जीवात्मा श्वास लेता है। शरीर या फेफड़े मेरी तुच्छ बुद्धि में लोहार की धौंकनी के समान है -जैसे धौंकनी आप से आप न वायु खींच सकती है और न बाहर फेंक सकती हैं ऐसे ही फेफड़े न श्वास लेते हैं और बाहर निकालते हैं -जीवात्मा की प्राण-शक्ति के कारण फेफड़ों से यह क्रिया बन पडती है।
ऋषि -जो कुछ भी हो परंतु हमारा अनुभव यह है कि शरीर के अंगों को मरोडने से मन निश्चल हो जाता है- इसलिए ये सब महात्मा उग्र करके अपने मन को निश्चल कर रहे हैं- इससे बढ़कर और कोई साधन नहीं है।
उ ग्रसेन- महाराज ! ये साधन इस अवस्था में मुझसे न बन पड़ेंगेl
। ऋषि -तो फिर इस जन्म में मन के निश्चल करने की आशा न रक्खो।
उग्रसेन- ऋषियों की कृपा हो तो सब कुछ हो सकता है। ऋषि-( प्रसन्न होकर) यह सत्य है परंतु साधन अवश्य करना पड़ेगा।
उग्रसेन- आप शरीर के वश करने का साधन बतलाते हैं- मन के वश करने के साधन की कृपा क्यों नहीं करते?
ऋषि -शरीर के वश करने ही से मन वश में आता है- जब तुम्हारा शरीर भले प्रकार निश्चल हो जायगा और तुम्हारे श्वास तुम्हारे वश में होंगे तो तुम्हारे अंतर में नाद प्रकट होगा और जैसे मस्त हाथी लोहे का अंकुश लगने से सीधा हो जाता है ऐसे ही चंचल मन अनाहत नाद का अंकुश लगने से निश्चल हो जाता है- जैसे मृग व्याध के शब्द को सुनकर उसकी मधुरता से मुग्ध हो जाता है ऐसे ही अनाहत नाद को सुनकर योगी का मन मोहित हो कर चंचलता छोड़ देता है।
क्रमशः
🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**
*परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज-
रोजाना वाकिआत-
14 जनवरी 1933 -शनिवार-
राव बहादुर मास्टर आत्माराम जी अमृतसरी आर्य समाज के कठिनाई निवारक है। बड़े काबिल व कलम के धनी है। जब कभी आर्य समाज किसी उलझन में पड़ जाती है और आप उसके समझाने की कोशिश में संलग्न होते हैं और वह सुलझ जाती है ।
मुझे भी वर्णित व्यक्ति से भेंट हासिल है। करीबन 34 बरस हुए अमृतसर में आपके निवास पर दर्शन किए थे। एक अजीज की बारात में अमृतसर जाना पड़ा था। एक साथी सत्यार्थ प्रकाश का गुरुओं की तर्जुमा खरीदना चाहता था। इस गरज से मास्टर साहब के निवास पर जाने का इत्तेफाक हुआ।
मास्टर साहब समय-समय पर राधास्वामी मत पर हमला करते रहते हैं। मगर अफसोस यह है कि वह राधास्वामी मत की कोई पुस्तक अध्ययन करने की तकलीफ गवारा नहीं फरमाते । कुछ अर्सा हुआ आपने सुरत शब्द अभ्यास का उपहास उड़ाया था।
15 जनवरी के प्रकाश अखबार में आपने " अमेरिका में देव समाज का खंडन" के शीर्षक से एक लेख तहरीर करके राधास्वामी मत पर फिर नाजायज हमले किये हैं। आप लिखते हैं:-
"राधास्वामी मत के भगत बिला शुबहा पूरन आस्तिक नहीं । कारण यह है कि वह अपने अंग्रेजी मासिक पत्र के मुख्य पृष्ठ पर ईश्वर की सहायता माँगने की जगह सबसे ऊपर अपने इंसानी गुरु राधास्वामी जी सहाय शब्द लिखते हैं और सृष्टिकर्ता ईश्वर को दूसरा दर्जा देते हैं ।
यही नहीं बल्कि राधास्वामी मत के भगत जो कान मूंदी अभ्यास करते हैं उसे बवासीर और भगंदर ( नासूर) से अपना खौफनाक व्याधियां पैदा हो जाते हैं और चेहरे की रौनक उड़कर पीलापन छा जाता है वगैरह वगैरह"। राधास्वामी मत का कोई अंग्रेजी मासिक पत्र नहीं है ।
एक 15 रोजा मैगजीन जरूर है। शायद राव बहादुर साहब का मतलब उसी से हो । मगर आपको किसी अखबार के सरवर्क की इबारत देखकर यह व्यवस्था दे देना कि हम लोग पूरन आस्तिक नहीं है सरासर जुल्म नहीं तो क्या है ? अगर अखबार के सरवर्क पर राधास्वामी सहाय लिखने से हम लोग पूर्ण आस्तिक नहीं रहे तो "श्री गणेशाय नमः , " श्री गुरुवाय नमः" वगैरह अल्फाज लिखने वाले हिंदू या कुछ न लिखने वाले ईसाई भी पूरन आस्तिक न रहने चाहिए ।
बहुत से शास्त्रों के शुरु में सिर्फ लफ्ज "अथ" आता है । जो ईश्वर का नाम नहीं है मसलन अष्टाध्यायी के शुरू में "अथ" शब्दानुशासनम्" ऐसे ही व्यास जी के वेदान्त सूत्रों और पतंजलि मुनि के योगसूत्र लफ्ज अथ से शुरू होते हैं ।
क्रमशः
🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**
रम गुरु हुजूर महाराज -प्रेम पत्र -भाग 1-
कल से आगे -(14 )
संत सतगुरु दया करके फरमाते हैं कि कुल जीवो को मुनासिब और कर्तव्य है कि अपने जीव के फायदे के वास्ते सच्चे प्रमार्थी या साधगुरु या संत सतगुरु का खोज करते रहे और जहाँ कहीं सच्चे परमार्थ की रीति जारी होवे,यानी सच्चे मालिक सत्तपुरुष राधास्वामी दयाल की भक्ति का उपदेश दिया जाता होवे और भेद रास्ते का और जुगत उस पर चलने की सुरत शब्द अभ्यास के साथ बताई जाती होवे, वहाँ जाकर जरूर शामिल होंवें, और कुछ दिन सतसंग करके महिमा सच्चे मालिक और सच्ची भक्ति और सच्चे मार्ग और अभ्यास की खूब गोर करके सुनें और समझें। और दुनियाँ के हाल और कारोबार को अच्छी तरह से देखें और विचार करें कि कोई चीज वहांँ ठहराऊ नहीं है और यह देश सुरत यानी रुह के रहने का नहीं है , उसका निज घर माया की हद के पार है और वही निर्मल चेतन देश सच्चे मालिक का धाम है। जो इस तरह बर्ताव करेंगे तो आहिस्ता आहिस्ता उसके मन में सच्चे मालिक और उसके सच्चे धाम की थोड़ी बहुत प्रतीति और शौक उसके मिलने का पैदा होगा। और जिस कदर सच्चे गुरु और सच्चे प्रेमियों का संग होता जावेगा उसी, कदर यह प्रीति और प्रतीति बढती जावेगी।क्रमशः
🙏🏻 राधास्वामी🙏🏻**
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