🙏 *तुम्हारी रोशनी से बाहर की रोशनी का अस्तित्व है वरना बाहर तो सब अंधेरा ही है। खाली राख है, कुछ नही।* 🙏
प्रस्तुति - कृष्ण मेहता
पुराने दिनों में जब समुद्र की लोग यात्रा करते थे और यंत्र नहीं थे जानने के, पहचानने के लिए नक्शे नहीं थे, कि हम भूमि के करीब पहुंच गए या नहीं। तो वे एक प्रयोग करते थे। हर जहाज पर कबूतर पाल कर रखते थे। कबूतरों को छोड़ देते थे। अगर कबूतर न लौटते तो इसका मतलब, जमीन करीब है। उन्होंने कहीं वृक्ष पा लिए होंगे, भूमि पा ली होगी, कोई आलंबन मिल गया होगा, अब लौटने की कोई जरूरत नहीं है। अगर कबूतर लौट आते तो उसका अर्थ है कि जमीन करीब नहीं है, जमीन अभी दूर है। कबूतर को कहीं बैठना तो होगा, कहीं बसना तो होगा। अगर बाहर कोई सहारा मिल जाएगा तो वह फिकर छोड़ देगा जहाज की। ऐसे थक गया होगा जहाज पर बैठ-बैठे। पानी और पानी और पानी…! मिल गई होगी हरियाली, अटक गया होगा। लेकिन अगर कोई भूमि न मिले तो क्या करेगा? लौटना ही होगा, लौट आएगा वापिस।
ऐसा ही हमारा चित्त है। जब तक हम उसे बाहर भूमि दिए जाते हैं, तब तक भीतर नहीं लौटता। किसी का धन में अटका है, किसी का प्रतिष्ठा में अटका है, किसी का वस्तुओं में अटका है, किसी का संबंधों में अटका है..लेकिन मन जब तक बाहर अटका है तब तक भीतर नहीें लौटेगा। इसलिए सारे ज्ञानी कहते हैं: बाहर से तादात्म्य छोड़ो। मन को बाहर मत अटकाओ। बाहर से सारे सेतु काट दो। और तब अचानक एक प्रकांड ऊर्जा हमारे अपने और वापिस लौटती है; जैसे गंगा वापिस लौट पड़े गंगोत्री में, ऐसी आंदोलनकारी घटना घटती है। तुम्हारी ही ऊर्जा जब तुम्हारे तरफ वापिस लौटती है, तो तुम रोशन हो जाते हो। ओर जानते हो कि तुम्हारी इसी रोशनी से बाहर की रोशनी का अस्तित्व है वरना बाहर तो सब अंधेरा ही है। खाली राख है, कुछ नही।
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