**राधास्वामी!! 11-11-2020- आज सुबह सतसंग में पढे गये पाठ:-
(1) काल ने जगत अजब भरमाया। मैं क्या क्या करूँ बखान।।-(जप तप ब्रत संजम बहु धोखे । पंच अग्नि में जले निदान।।) (सारबचन-शब्द-17,पृ.सं.202,203)
(2) निज घर अपने चाल री। मेरी प्यारी सुरतिया।।टेक।। माया फैली जग में भारी। जित जावे तित काल री।। मेरी प्यारी सुरतिया।।-(सुरत शब्द मारग ले चालो। राधास्वामी नाम हिये पाल री।। मेरी प्यारी सुरतिया।।) (प्रेमबानी-2-शब्द-73,पृ.सं.340)
🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**
राधास्वामी!! 11-11-2020- आज शाम सतसंग में पढे गये पाठ:-
(1) आज मेघा रिमझिम बरसे। हिये पिया की पीर सतावे।।टेक।। पिया छाय रहे परदेसा। मैं पडी काल के देसा।। मोहि निस दिन यही रे अँदेसा। कोई पिया से आन मिलावे।।-(धुन सुन स्रुत अधर सिधारी। सत अलख अगम्म लखा री।। पिया राधास्वामी रुप निहारी। उन महिमा छिन छिन गावें।।) (प्रेमबानी-4-शब्द-2-पृ.सं.22-23)
(2) सुरतिया झुरत रही मन माहिं, प्रेम की घट में देख कसर।।टेक।। औगुन अपने निसदिन गुनती। गुन गुन रोवत आठ पहर।।-(दूर हटे वही हाल बेहाला। ध्यान भजन सब गये बिसर।।) (प्रेमबिलास-शब्द-87,पृ.सं.122,123)
(3) यथार्थ प्रकाश-भाग दूसरा-कल से आगे।
🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**
**राधास्वामी!!
11-11- 2020 -कल से आगे आज
शाम सत्संग में पढ़ा गया बचन- कल से आगे:-
( 48)
प्रश्न परंतु स्वामीजी ने आगे चल कर पृष्ठ 283 पर यह भी तो लिखा है कि किसी का उच्छिष्ठ अर्थात् जूठा न खाय।। उत्तर- यही तो स्वामीजी का कमाल है। जहाँ जो कुछ चाहते हैं सिद्ध कर देते हैं । उनके कमालों का वर्णन आगे चल कर तीसरे भाग में करेंगे।।
( 49) और अथर्वेवेद में तो उच्छिष्ट की महिमा में एक पूरा सूक्त दिया है जिसके 27 मंत्र हैं । देखो ग्यरहवाँ कांड सातवाँ सूक्त। इस सूक्त में पृथ्वी, जल, समुंद्र, चंद्र, वायु, मृत्यु प्रजापति सब उच्छिष्ट के अधीन कहे गये हैं और ऋग्,यजुः, साम अर्थव और प्राण सबकी उत्पत्ति उच्छिष्ट से बतलाई है, और उच्छिष्ट शब्द का अर्थ इस सूक्त में यज्ञ का उच्छिष्ट अर्थात् बचा हुआ है। और यह नाम परब्रह्म को दिया गया है।।
(50) सब बातें हैं , किंतु इनके यहाँ लिखने का यह तात्पर्य नहीं है कि मनुष्य हर किसी का जूठा खाता फिरे। तात्पर्य केवल यह प्रकट करने से है कि मनुष्य महापुरुषों के प्रसाद का आदर सम्मान करें। पर जोकि किसी का जूठा खाने में उसकी बीमारी लग जाने का भय है। इसलिए सावधान होकर बरते। जोकि साध-संत जीव के सच्चे हितकारी होते हैं वे अपना प्रसाद किसी को उसी समय प्रदान करते हैं जब वह समझ लेते हैं कि उसके उपयोग से प्रसाद लेने वाले को लाभ ही लाभ होगा। इसलिए जब तक वे स्वयं प्रसाद देने की मौज न फरमावें धैर्य से रहे अपनी ओर से प्रसाद और चरणामृत के लिए दौड़-धूप करना या मनमाने ढंग से प्राप्त करके अपने को प्रसन्न कर लेना अनुचित है।
🙏🏻 राधास्वामी🙏🏻
यथार्थ प्रकाश -भाग दूसरा-
परम गुरु गुरु साहबजी महाराज!**
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
No comments:
Post a Comment