भगत नरशी जी मेहता के विश्वास की कथा_
" रोटी चार भारजा घाली, नरसीला की हुंडी झाली "
एक बार द्वारका को जाने वाले कुछ साधु नरसिंह जी के पास आये और उन्हें पांच सौ रूपये देते हुए कहा की_
आप काफी प्रसिद्ध व्यक्ति हो आप अपने नाम की पांच सौ रुपयों की हुंडी लिख कर दे दो, हम द्वारका में जा कर हुंडी ले लेंगे।
पहले तो नरसिंह जी ने मना करते हुए कहा_
मैं तो गरीब आदमी हूँ, मेरे पहचान का कोई सेठ नहीं जो तुम्हे द्वारका में हुंडी दे देगा, पर जब साधु नहीं माने तो उन्हों ने कागज ला कर पांच सौ रूपये की हुंडी द्वारका में देने के लिये लिख दी और देने वाले (टिका) का नाम "सांवल शाह" लिख दिया।
द्वारका नगरी में पहुँचने पर संतों ने सब जगह पता किया लेकिन कहीं भी "सांवल शाह" नहीं मिले।
सब कहने लगे की अब यह हुंडी तुम नरसीला से हि लेना।
उधर नरसिंह जी ने उन पांच सौ रुपयों का सामान लाकर भंडारा देना शुरू कर दिया।
जब सारा भंडारा हो गाया तो अंत में एक वृद्ध संत भोजन के लिये आए। नरसिंह जी की पत्नी ने जो सारे बर्तन खाली किये और जो आटा बचा था उस की चार रोटियां बनाकर उस वृद्ध संत को खिलाई।
जैसे ही उस संत ने रोटी खाई वैसे ही उधर द्वारका में भगवान ने "सांवल शाह" के रूप में प्रगट हो कर संतों को हुंडी दे दी, और भरे चौक में संतों को हुंडी के रूपये दिये, द्वारका के सभी सेठ देखते ही रह गये।
भारजा - पत्नी,
घाली - देना,
झाली- हो गई,
हुंडी -
एक तरह के आज के डिमांड ड्राफ्ट के जैसी होती थी।
इससे रास्ते में धन के चोरी होने का खतरा कम हो जाता था। जिस स्थान के लिये हुंडी लिखी होती थी, उस स्थान पर जिस के नाम की हुंडी हो वह हुंडी लेन वाले को रोख दे देता था।
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