**राधास्वामी!! 26-11-2020- आज शाम सतसंग में पढे गये पाठ:-
(1) प्रेम भरी भोली बाली सुरतिया। पल पल गुरु को रिझाय रही।।-(राधास्वामी दयाल लिया अपनाई। नित नया प्रेम जगाय रही।।) (प्रेमबानी-4-शब्द-10-पृ.सं.37,38)
(2) कस जायँ री सखी मेरे मन के बिकार।।टेक।। यह मन चोर चुगल मदमाता। भोगन रस पी रहे मतवार।।-(राधास्वामी सतगुरु और निहारूँ। दूर करें कब मन के बिकार।।) (प्रेमबिलास-शब्द-96-पृ.सं.137,138)
(3) यथार्थ प्रकाश-भाग दूसरा-कल से आगे।।
सतसंग के बाद पढे गये स्पैशल पाठ:-
(1) सतगुरु सरन गहो मेरे प्यारे। कर्म जगात चुकाय।।-(दर्शन करत पिंड सुधि भूली। फिर घर बाहर सुधि क्या आय।।) (सारबचन-शब्द-13वाँ-पृ.सं.195,196)
(2) कोई कदर न जाने। सतगुरु परम दयाल री।।टेक।। देह धरें जिव भार उठावें। काटें जम का जाल री।।- (राधास्वामी सतगुरच मोहि अस भेंटे। हो गई मैं खुशहाल री।।)
(प्रेमबिलास-शब्द-39-पृ.सं.52)
🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**
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**राधास्वामी!! 26-11- 2020 -आज शाम सत्संग में पढ़ा गया बचन- कल से आगे -(67 ) प्रश्न- आपने प्रमाण तो बहुत दिये परंतु सनातनधर्मी भाई तो विशेषतः पुराणों के प्रमाण मानते हैं। क्या पुराणों में भी साध संत की सेवा और प्रसाद का कहीं उल्लेख है? उत्तर- बार-बार उल्लेख है। उदाहरण के लिए आप श्रीमद्भागवत ही को लीजिये। इस पुराण के पहले स्कंद के पाँचवें अध्याय में नारदजी व्यासजी से अपने पिछले जन्म का वृत्तांत सुना कर ज्ञान उपदेश करते हैं। कहा है-" हे महामुनि! मैं पूर्व जन्म में किसी एक दासी का पुत्र था। मेरे ग्राम में चौमासा भर व्यतीत करने के लिए वर्षाकाल में बहुत से वेदांती योगी लोग आकर टिके। मैं बालक ही था । मेरी माता ने मुझे उन महात्माओं की सेवा शुश्रूषा में युक्त कर दिया (श्लोक २३)। मैं किसी प्रकार का लड़कपन या चंचलता नहीं करता था। एवम् शांत स्वभाव से सब खेल छोड़कर उन्हीं के समीप रहता और थोड़ा बोलता था । इन्हीं कारणों से वे मुनि लोग यद्यपि समदर्शी थे तथापि मुझपर प्रसन्न होकर कृपा करने लगे(२४) । उन मुनियों की आज्ञा से मैं नित्य उनके भोजन से बची हुई जूठन खा लेता था। इसी से मेरे संपूर्ण पाप नष्ट हो गये। ऐसा करते-करते कुछ दिनों में मेरा चित्त शुद्ध हो गया । जिससे उन्ही साधुओं के धर्म (ईश्वरभजन) में मेरी रुचि उत्पन्न हुई (२५)। (पृष्ठ १९ पंडित रूपनारायण पाण्डेय कृत अनुवाद, मुदित बंबई सन 1931ई०) 🙏🏻राधास्वामी 🙏🏻 यथार्थ प्रकाश- भाग दूसरा -परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज!**
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