Saturday, November 28, 2020

दयालबाग़ सतसंग शाम 28/11

 **राधास्वामी!! 28-11-2020- आज शाम सतसंग में पढे गये पाठ:-                                   

(1) प्रेमी मिलियो रे सतगुरु से। देवें काज बनाय।।टेक।। दयानिधान परम हितकारी। जीवों को दें ओट बुलाय।।-(राधास्वामी सतगुरु प्यारे। महिमा उनकी को सके गाय।।) (प्रेमबानी-4-शब्द-2-पृ.सं.39,40)                                                        

 (2) राधास्वामी आय प्रगट हुए जग में। राधास्वामी मोहि लगाया सँग में।।-( राधस्वामी चरनन रहूँ लिपटाय। हर दम राधास्वामी नाम धियाय।।) (प्रेमबिलास-शब्द-98, पृ.सं.140)                                                     

(3) यथार्थ प्रकाश-भाग दूसरा-कल से आगे।।                                                  

सतसंग के बाद शुकराना पाठ:-                                                     

(1) पन्नी गली से हुआ तू----------          

                       

  (2) बधाई है  बधाई है बधाई। पावन घडी आई, पावन घडी आई।।          

🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**



**राधास्वामी!!      

                                    

28- 11- 2020 -आज शाम  सत्संग में पढ़ा गया बचन-

कल से आगे-( 69)

 प्रश्न -आपकी पुस्तक में यह जो लिखा है कि नीच ऊँच जो भी सेवा हो सब करनी चाहिए । गुरु कुछ भी कहे उसको टालना नहीं। क्या इस बात की आड़ में संसार में व्यभिचार या कुकर्मों का प्रचार नहीं होता? अन्य नहीं तो समाजी भाई तो आप इस संबंध में बहुत आक्षेप करते हैं।।   ?

                                     

  उत्तर - आक्षेप व्यर्थ है और वह आक्षेप करने वालों की मनोवृति प्रकट करता है। यदि आप किसी के घर जायँ और वह और उसके घर के लोग आपकी श्रद्धापूर्वक सेवा करें और आप उनकी सेवा का उल्लेख करते समय किसी पुस्तक या समाचारपत्र में लिख दें कि उन्होंने हर काम आपकी इच्छा के अनुसार किया और कोई भी सेवा करने में संकोच नहीं किया और ऊंच-नीच हर प्रकार के कार्य के लिए सबके सब पुरुष और स्त्रियाँ उद्यत रहे तो क्या कोई भद्र पुरुष इस वर्णन से अनुमान करेगा कि आपने अपने मित्र के घर में कोई निन्द्य कार्य किया, या आपके द्वारा आपके मित्र के घर की स्त्रियों को किसी अनुचित कर्म करने की प्रेरणा हुई?

फिर यदि आपके संबंध में कोई ऐसा भ्रम न करेगा तो संत सतगुरु जैसी पवित्र आत्मा के संबंध में क्यों ऐसे निकृष्ट भाव उठाये जाते हैं?

यदि सर्वसाधारण के साथ इस प्रकार का व्यवहार करने की आज्ञा होती तो भी कोई बात थी। किंतु यहाँ तो केवल संत सतगुरु की सेवा के लिये आज्ञा है।  क्या नीच ऊँच सेवा का अर्थ केवल सदाचार से भ्रष्ट क्रियाएँ ही हो सकती है ?

क्या जूता उठाना या साफ करना , मकान की नाली साफ करना नीच काम नहीं समझे जाते ? एक काल में केवल एक ही संत सतगुरु होते हैं और उनकी तन मन आदि में रत्ती भर भी आसक्ती नहीं होती , और जैसा कि पहले विस्तृत वर्णन हो चुका है उनके अंतर में सच्चे मालिक के प्रेम का सिंधु निरंतर लहराता रहता है । फिर कुकर्मो का भ्रम करने का क्या अर्थ? 

                       🙏🏻राधास्वामी🙏🏻

यथार्थ प्रकाश -भाग दूसरा -

परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज।**

🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

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