साहित्य साधना के तप: पुरुष - श्री शिव पूजन लाल 'विद्यार्थी'
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विनोद सिंह
वर्षों सत्कर्म जब पुण्य बन कर धरती पर फलता है।
साहित्य का अलख जगाने को शिवपूजन सा लाल निकलता है।।
आज जब मैं अपने अतीत का विहंगावलोकन करने बैठता हूँ तो वो दिन मेरे लिए सबसे शुभ प्रतीत होता है जिस दिन मेरी चचेरी दीदी ने मुझसे कहा कि तुम्हारे गुरु श्री शिव पूजन लाल विद्यार्थी जी रांची में इसी बिल्डिंग के चौथे तल्ले पर अपनी बेटी के यहां आए हैं।फिर क्या था उनसे मिलने की उत्कंठा मेरे हृदय में एक ऐसा तरंग उत्पन्न कर दिया कि अब वह उनके पवित्र चरणों को छूकर ही शांत हो सकता था। बिना समय गंवाए मैं पहुंच गया चौथे तल्ले पर,और क्यों नहीं , 1983 के बाद अपने इस महान गुरु से मिलने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ था।मिलने की इच्छा पहले से भी थी,और वो घड़ी आखिर आ हीं गई।
जेही कर जा पर सत्य सनेहु।
वा तेही मिलही कछु ना संदेहु।।
घंटी बजाई ,दरवाजा खुला।सामने खड़ा वहीं सोम्यता सहजता और सादगी की प्रतिमूर्ति ,गोरा चेहरा प्रशस्त ललाट ,सफेद बाल ,सादा लिवास और ओठो पर वही चिर परिचित मृदुल मुस्कान।देखते हीं स्वतः मेरे दोनों हाथ पूर्ण समर्पण और श्रद्धा से उनके दिव्य चरणों पर और उनका वरद हस्त मेरे माथे पर।ऐसा लगा कि मेरे भीतर एक दिव्य ज्योति का संचार हो रहा हो।
सच में कहा गया है।
श्री गुरु पद नख गन मनि गन जोती।
सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती।।
बडे स्नेह से कमरे के भीतर ले गए।लगभग, जीवन के आठ दशकों का उतार चढ़ाव देखने वाले,ईमानदार कर्तव्यनिष्ठ अनुशासन प्रिय ,हिन्दी साहित्य के अनन्य उपासक ,इसकी महिमा के पोषक और इसके विस्तार के समर्थक और हिंदी तथा भोजपुरी दोनों ही भाषाओं में अपनी रचनाओं से लोगों को मंत्र मुग्ध कर देने वाले साहित्य के शिखर पुरुष आदरणीय शिवपूजन लाल विद्यार्थी जी से मिलना एक दिव्य मिलन से कम नही था।
बैठते ही इधर उधर की बात न कर सीधे पूछ बैठे क्या कुछ लिखते -पढते हो या केवल विद्यालय में छात्रों को पढ़ा कर नौकरी करने का दायित्व निभाने तक हीअपने आप को सीमित रखे हो।विद्यार्थी जी शुरू से ही सीधे प्रश्न करने के आदी है और मेरे पास इस प्रश्नं का कोई उत्तर नहीं था।उन्होने कहा कि साहित्य के शिक्षक यदि साहित्य सृजन से अपने आप को दूर रखते हैं तो यह साहित्य की सबसे बड़ी उपेक्षा है।ईश्वर ने मनुष्य को खुशहाल रखने के लिए तीन तरह के आनंदो का विधान बनाया है- कामानन्द ,काव्यानंद और ब्रह्मानंद।साहित्य काव्यानंद की प्राप्ति का सबसे बड़ा आधार है।यह समुद्र जैसा विस्तृत और गहरा है।यह न तो कभी खाली होता और न कभी भरता है।इसकी गहराई में जितना डुबो प्यास उतनी ही बढ़ती जाती है।ठीक उसी तरह जैसे -
राम कथा जे पढत अघाही।
रस विशेष जाना तिमी नहीं ।।
तब मुझे लगा कि आज पच्चासी वर्ष की अवस्था मे, कई किताबों को लिखने के बाद भी वो क्यों साहित्य साधना में लगे रहते हैं। शहर के छोटे या बड़े साहित्यकारों से मिलने के लिए अत्यंत आतुर रहते हैं।उनके लिखने और सीखने की प्रवृत्ति निश्चित रूप से मेरे जैसे नवसिखुआ साहित्यानुरागी के लिए प्रेरणा का अगाध स्रोत है।उनका सुखद सानिध्य, शब्दों की कल -कल छल -छल ,शीतल स्वच्छ मीठा बहता हुआ प्रपात की तरह है जिसके दर्शन - मज्जन और पान से सदैव साहित्य की पिपास बुझती है। जीवन में नई स्फूर्ति, नई ऊर्जा का संचार होता है, कल्पना उर्वर हो जाती है, मौन मुखर हो जाता है और लेखनी को तो साहित्य के अनंत आकाश में उड़ने के लिए पंख मिल जाता है और वह फिर नित्य नई- नई रचनाएं करने में समर्थ हो जाता है।
विद्यार्थी जीआज जितना लोकप्रिय साहित्यकारों के बीच में है उतना ही लोकप्रिय अपने अध्यापक जीवन में अपने छात्रों के बीच में थे।छात्रों को सवारने, सुधारने ,प्रोत्साहित करने और भविष्य के लिए अच्छा नागरिक बनाने के लिए वे सतत प्रयत्नशील रहा करते थे।हो भी क्यों न-
"पारस के रंग कैसा,पलटा नहीं लोहा।
केते निज पारस नहीं, या बीच रहा बिछोहा।"
इस उक्ति को चरितार्थ करने में वह जीवनभर लगे रहे।उनका मानना है कि गुरु को छात्रों में ऐसा सामर्थ डालना चाहिए कि वे अपने गुरु से भी ज्यादा नाम और प्रतिष्ठा हासिल करें-जैसे रामानंद के तुलसी,बल्लभाचार्य के सूरदास और और परशुराम के कार्ण।
विद्यार्थी जी के व्यक्तित्व का सबसे बड़ा आकर्षण है उनका विनोदी स्वभाव यह उन्हें कभी निराश नहीं होने देता बीती बाते उन्हें उलझा नहीं पाती, आने वाला कल उन पर हावी नहीं हो पाता गंभीर से गंभीर परिस्थितियों में भी वे हमेशा सहज बने रहते हैं।यही कारण है कि उनका विधुर जीवन उन्हें कभी निराश नहीं किया और वे चुंबक की तरह अपनी ओर लोगों को आकर्षित करते रहे।
शिक्षक की नौकरी से अवकाश प्राप्त करने के बाद वे अपना ज्यादा समय वाराणसी में ही बिताए।यह उनके साहित्य साधना के लिए उर्वर भूमि है।कहते हैं कि जिस तरह से गंगा गंगोत्री से निकलती है ,उसी तरह से साहित्य की धारा काशी से निकल कर अन्य जगहों में बहती है।
उनका मानना है कि शिक्षक का एक वाक्य भी शिष्य के जीवन में अभूतपूर्व परिवर्तन लाने का सामर्थ्य रखती है।इसे लोग सही माने या न माने और हाँ मानेंगे ही क्यों आज बातें किसी को लगती ही कहाँ है - पर उनका कहना कि साहित्य के शिक्षक और विद्यार्थी अगर साहित्य सृजन मैं अपने आप को नहीं लगाते हैं, तो उनके सामर्थ और योग्यता पर प्रश्न चिन्ह खड़ा हो जाता है।और यह बात मुझे वैसी ही लगी जैसे -
आज मैंने देखी है जरा
क्या हो जाएगी एक दिन
ऐसी ही मेरी यशोधरा?
बातें लग गई और और शाक्य वंश के राज कुमार सिद्धार्थ से गौतम बुद्ध बन गए और मैं भी विद्यार्थी जी की बातों से प्रभावित होकर अपना अध्यापन कार्य से बचा खुचा समय साहित्य के सामानों में लगा रहा हूँ- मैं मानता हूं कि मेरी लेखनी उतनी मर्मज्ञ, सशक्त और उर्वर नहीं है -
"भूषण अथवा कवि चंद नहीं।
बिजली भर दें वो छंद नहीं।।"
पर इतना जरूर कह सकता हूँ कि शिष्य का अपने एक सामर्थ गुरु से पुनर्मिलन उसकी जंग लगी हुई प्रतिभा और लेखनी में फिर से नई धार ला दी।
चलते चलते वे मुझे अपनी नई पुस्तक "क्षंदों की छांव में "उपहार नहीं प्रसाद स्वरूप भेंट की,मन गदगद हो गया आँखों में कृतज्ञता के आंसू भर आए।धन्य है विद्यार्थी जी! धन्य है उनका पुत्रवत स्नेह!यदि मैं शब्दों में कृतज्ञता व्यक्त करूं तो यह एक ढिठाई होगी -और हाँ, आज मैं जो कुछ हूं उन्हीं की बदौलत -
करते तुलसी दास भी कैसे मानस नाद।
महावीर का यदि उन्हें मिलता नही प्रसाद।।
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