Friday, September 4, 2020

राधस्वामी के उपदेश

 *राधास्वामी!!      मिश्रित वचन 


 आज शाम के सत्संग में पढ़ा गया बचन- कल से आगे-( 98) ' 


पारस्कर ग्रह सूत्र' कांड १ कंडिका ३ में, जहाँ अर्घ और मधुपर्क की प्रथा का वर्णन आया है, लिखा है कि "मधुपर्क का उच्छिष्ट (जूठा बचा हुआ ) उत्तर की ओर बैठे हुए पुत्र और विद्यार्थि को देवें"  (सूत्र 22)। तथाच ' आपस्तंबीय गृह सूत्र'  के तेरहवें खंड में लिखा है कि "  आचार्य आदि पूज्य तीन बार स्वयं चाट कर शेष बचे मधुपर्क को अपने किसी प्रिय मित्र या भाई को देवे जिसने समावर्तन ठीक किया हो।

उससे भी शेष बचे तो वह भी समावर्तन किये शिष्य आदि को देवे और उक्त विधी से वे  भी प्राशन करें"। इन प्रमाणो से प्रकट है कि भारत वर्ष में प्राचीन काल से यह प्रथा चली आई है कि गुरु के उपयोग में आई हुई वस्तुओं को झूठा समझ कर फेंक नही दिया जाता किंतु उनका याग्य सत्कार किया जाता है । इस पुस्तक के दूसरे भागों में इस विषय पर विस्तृत रूप से विचार किया जायेगा।।                         

🙏🏻राधास्वामी🙏🏻

 यथार्थ प्रकाश- भाग पहला

 - परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज!



 आज शाम के सतसंग में पढे जाने वाले पाठ-  

             

    (1) राधास्वामी सतगुरु पूरे। मैं आया सरन हुजूरे।।-(अब मन में रहूँ मगन मैं। शब्दारस पिऊँ अपन में।। ) (प्रेमबानी-3-शब्द-17,पृ.सं.359)  

                                                       

(2) देखो दृष्टि पसार जगत सब धूल है। सब ही भोग बिलास भरम की सूल है।। घट का भेद अगाध कहूँ मैं खोल अब। लेव चित वाहि धार चिन्ता मेट सब।।

-( राधास्वामी कहें पुकार बचन यह सार है। समझ सोच लेव धार बेडा पार है।।) (प्रेमबिलास-शब्द-47,पृ.सं.59)                                                      

  (3) यथार्थ प्रकाश-भाग पहला-कल से आगे-               

  🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**


*परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज


 -रोजाना वाक्यात- 30 दिसंबर 1932 -शुक्रवार

- आज के दिन का बहुत सा हिस्सा मुलाकातों में गुजरा। 171 आदमियों से मुलाकातें कीं और भी 50 नाम बाकी है । इतनी भीड़ के मौके पर मुलाकातों के लिए वक्त निकालना निहायत असुविधाजनक है मगर न भी कहते नहीं बनता।।                                                    

 रायबहादुर डॉ किशोरी लाल चौधरी, असिस्टेंट डायरेक्टर पब्लिक हेल्थ डिपार्टमेंट , यहाँ इंतजामात  सफाई देखने के लिए आये थे । आते ही निमोनिया में गिरफ्तार हो गए और निमोनिया भी बड़ा तेज था। मगर शुक्र है की दया से अब मर्ज में आरोग्य लाभ हो रहा है। दैव योग से डॉक्टर जितेंद्र नाथ सेन गुप्ता, सिविल सर्जन ,सूबा बिहार, भी  आये हुए थे । आपने फौरन मरीज का चार्ज ले लिया। बेचारा इंसान इरादा ही कर सकता है। कामयाबी किसी दूसरे के हाथों में है।                                           

 रात के सत्संग में रात के मजमून पर मजीद रोशनी डाली गई । और बहुत से लोगों के शुबहे दूर किए गये। जब कोई नई बात कही जाती है तो ख्वामख्वाह लोगों के दिलों में शिकायतें पैदा हो जाती है लेकिन जब पुस्तकों से प्रमान पेश कर दिए जाते हैं तो सब शिकायतें निवृत हो जाती है। लंबी अवधि से इंसान पुस्तकों की परस्तिश करता रहा है इसलिए प्राकृतिक रूप से उसके दिल में लिखित वाक्य में ज्यादा श्रद्धा है। एक सतसंगी का यह सवाल था कि अगर मालिक हरकत है तो उसके चरणों में पहुंचने पर हमारी सुरत को कभी चैन न मिलेगा। 

जवाब में बतलाया गया - शक्ति जब गुप्त रहती है तो अरुप व अनाम होती है और कोई काम नहीं करती लेकिन जब कार्यरत होती है तो नाम व रूप धारण करती है और निरंतर काम करती है ।

 चुनाँचे जब रचना नहीं थी तो मालिक की शक्ति गुप्त थी और अब जबकि रचना हो गई है तो मालिक की शक्ति प्रकट है और मुतवातिर हरकत में है। और चूँकि दोनों की हरकतें Harmonized  है इसलिये हमारी सुरत मालिक  के चरणो में मिलाप होकर ही सच्चा आराम मिल सकता है।

🙏🏻 राधास्वामी🙏🏻


*परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज- 04-09-2020

【 स्वराज्य】- 

कल से आगे:

- वजीर मेरा मतलब यही था कि अकेले मुझसे राज्य का काम नहीं चल सकता- अगर दीवान अमीरचन्द्र मंत्री की पदवी स्वीकार करलें तो अलबत्ता मैं राज्य का बोझ अपने सिर ले सकता हूँ।।    

                                   

छोटे मुसाहिब- तो दीवान जी का काम किसके सुपुर्द होगा?  दीवान- दानाध्यक्ष जी आसानी से कर सकेंगे । 

राजपंडित- वाह! धन्य है सभासद महाशय -सब काम कैसे प्रेम से तय कर लिया है, मगर यह तो बताओ कि दानाध्यक्ष कौन बनेगा?  

वजीर -क्या आप किसी का नाम तजवीज कर सकते हैं? 

बड़े मुसाहिब- पंडित जी ! आपके बड़े पुत्र अगर इस पदवी को मंजूर करें तो बड़ा ही अच्छा हो । 

राजपंडित -भाई! सोमदेव से पूछ लो - मैं उसके मामले में नहीं पड़ता - वह जाने उसका काम जाने- मुश्किल काम तो मंत्री का है सो दीवन अमीरचंद जी ने कृपा करके स्वीकार कर लिया है।

  खड़गसिंह - तुम सब के सब बेईमान हो -तुममें से एक भी राज्य की भलाई चाहने वाला नहीं है - घर से मिलीभगत करके आये हो और मिलकर लूट मचा रहे हो - मुझे यह इंतिजाम मंजूर नहीं है- राज्य का काम राजकुमारी जी के नाम से चलाया जाये और सब सभासद अपना अपना काम बदस्तूर करते रहे- क्या आप लोगों में से किसी के भी दिल में महाराज उग्रसेन की पुत्री के लिए श्रद्धा नहीं रही है?  

राजपंडित -(खफा होकर ) तुम्हें कैसे मालूम किसी के दिल में श्रद्धा नहीं रही है?  

खड़ग सिंह-- आप ही बतावें- राजकुमारी जी अब कहाँ है उनका क्या हाल है?  

राजपंडित- रनवास में होगीं और कहाँ होगीं (आहिस्ता से) और हाल अच्छा ही होगा - कोई बुरा हाल तो इन दिनों सुनने में नहीं आया।

  वजीर -राजकुमारी जी निहायत अच्छी तरह है -उनका सब इंतजाम देवदासी बांदी के सुपुर्द है और वह राजकुमारी जी को अपने पुत्री के समान पालती है -इससे ज्यादा आप क्या आशा रखते हैं ? 

खड़गसिंह --अगर आप मर जायँ और आपकी पुत्री किसी दासी के सुपुर्द कर दी जाए तो क्या इससे आपकी आत्मा प्रसन्न होगी ? 

दानाध्यक्ष-(मुहँ बिगाड कर)  क्या अशुभ बचन मुख से निकालते हो। अपना ही दृष्टांत क्यों नहीं दे दिया? 

 वजीर-( नाराज होकर) अच्छा! अब मैं न मंत्री का काम करूँगा और न राजपदवी मँजूर करूँगा- 

खड़गसिंह जी जैसा चाहे काम चलावें।  

राजपंडित-(जोश म़े आकर कर) खडगसिँह जी!  खुद राजा बना चाहते हो राजकुमारी जी के बहाने गढते हो -जब तक हम में से एक भी जीता है आपकी चाल चलने नहीं पायेगी। 

खड़गसिंह-( कडक कर) पंडित जी! जरा जबान संभाल कर बोलिये और भूल न जाइये कि खड़गसिंह कौम का क्षत्रिय है। 

राजपंडित- अरे क्षत्रिय है तो क्या- यहाँ भी तो ब्राह्मण है- क्या किसी की गर्दन काटोगे? (गर्दन आगे बढाकर खडग सिंह के सामने करके)- अगर  सचमुच क्षत्रियपुत्र हो तो लो काटो गर्दन- करो ब्रह्महत्या- और जाओ सात कुलों समेत सीधे नरक में- नाम खडगसिँह धरा के बनते हो बडे सूरमा- निकालो न तलवार?  

क्रमशः                     

  🙏🏻 राधास्वामी🙏🏻**lllll



प रम गुरु हुजूर महाराज- प्रेम पत्र -भाग 1-



 कल से आगे-( 26 )-

 उस अपार और अनंत रूप मालिक का हर जगह और देहधारी स्वरूप में मौजूद होना इस दृष्टांत से साफ तौर पर समझ में आ सकता है। जैसे की हवा या आकाश हर घर में मौजूद है और उस घर की लंबाई और चौड़ाई के मुआफिक सीमित मालूम होता है, पर वह कभी हिस्से और टुकड़े नहीं हुआ, बाहर के मंडल से जो निहायत विस्तृत है हमेशा मिला हुआ है और दर्जे बदर्जे ऊँचे की तरफ लतीफ और सूक्ष्म होता चला गया है।  और यह हाल उस मकान के दर्जे या खानों से है जो 5 या 7 होंवें, मालूम हो सकता है। 

सबसे ऊपर के दर्जे की हवा या आकाश निहायत सूक्ष्म और साफ होता है और हर दर्जे की हवा और आकाश बाहर के मंडल के उसी दर्जे या तह से मिले हुए हैं । फिर तो जुगत के साथ नीचे के दर्जे या खन की हवा मथन करके  ऊपर चढ़ाई जावें तो वह बिल्कुल साफ और निर्मल और सूक्ष्म हो कर अपने मंडल के साथ मिल जाएगी । 

और वहाँ पर न वह मकान के अंदर में कहीं नहीं जा सकती है और न बाहर और कोई हद उसकी नहीं है, यानी अंदर और बाहर एक ही है और मुआफिक अपने मंडल के अपार और बेहद है। इसी तरह से मालिक सब जगह और सब देहों में बगैर टुकड़े और हिस्से होने के मौजूद  है और जितने दर्जे कि उस चैतन्य में कहे जा सकते हैं, वह बसबब माया की मिलौनी के हुए हैं और माया भी किसी मुकाम पर पैदा हुई है। 

क्रमशः                 

🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**


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