Thursday, September 3, 2020

प्रेम उपदेश

 प्रेम उपदेश  (परम गुरु हुज़ूर महाराज)


 24. मन का क़ायदा है कि दर्शन के वास्ते बहुत जल्दी करता है और जबकि यह चाह ज़ाहिर में जल्दी पूरी नहीं होती, इस सबब से मन में संशय पैदा होता है। पर हुज़ूर राधास्वामी दयाल शब्द स्वरूप से हर एक जीव के सदा संग हैं, यानी उसके अंतर में मौजूद हैं। सतगुरु रूप से प्रगट दर्शन अक्सर नहीं देते हैं। और इसमें भेद है, नहीं तो दुरुस्ती और तरक़्क़ी परमार्थी की रुक जाने का डर है, यानी आगे रास्ता जैसा चाहिए नहीं चलेगा और मन नीचे स्थान पर स्वरूप के दर्शन में संतोष करके मगन हो जावेगा और जो वे इस तरह पर जैसा जल्दी मन चाहता है दर्शन देकर ऊपर को खींचेंगे, तो अजब नहीं है कि इधर से टूट जावे या बेहोश होकर या मतवाला सा पड़ा रहे। इस वास्ते जैसा जैसा मुनासिब है, वे आप दया करके सच्चे परमार्थी का काम बनाते हैं। हर दम शुकराना उनकी दया का करना और प्रीति और प्रतीति चरनों में बढ़ाना चाहिए और जब घबराहट हो, उसको सहना और अपने मन की कचाई और मलीनता पर चित्त में शरमाना और पछताना और प्रार्थना के साथ दया और मेहर माँगते रहना मुनासिब है। और इस बात का चित्त में दृढ़ निश्चय और भरोसा रखना चाहिए कि हुज़ूर राधास्वामी दयाल को हर एक की तरक़्क़ी और दुरुस्ती, जो जो सच्चे होकर सरन में आये हैं, उनकी चाह से विशेष मंज़ूर है।

          

  25. मन की अजब हालत है कि यह चरनों में सत्तपुरुष राधास्वामी दयाल के सच्चा होकर नहीं लगता है और न सचौटी से बरताव करता है और दुनियाँ के भोगों की चाहों को नहीं छोड़ता, बल्कि उन्हीं को माँगता है। असल तो यह है कि जब तक कि हुज़ूर राधास्वामी दयाल अपनी मेहर की मौज से इसको अंतर में ठेका और ठिकाना न बख़्शेंगे, तब तक यह मन डावाँडोल रहने में लाचार है। इसका बस नहीं चलता किधर लगे और यह किसी तरफ़ बिना लगे रह नहीं सकता। और जब तक कि उद्यम के काम में रहा कुछ याद न आई और जब उससे निश्चिंत हुआ तब क्या करे। जो हुज़ूर सतगुरु राधास्वामी दयाल की सेवा करना चाहे, जैसे पोथी का पाठ या नाम का सुमिरन या शब्द का श्रवन या स्वरूप का ध्यान, तो जब तक कि इसको उसमें रस और कुछ मज़ा न मिले और ठिकाना हाथ न लगे, तो कैसे लगे। और इसको भय और भाव ऐसा नहीं है कि सब काम और चाहें इधर की छोड़ कर प्यासे की तरह उधर को दौड़कर चरन में लिपट जावे। जो इस क़दर प्यास और चाह होती, तो कुछ मुश्किल न होती। जैसे हाकिम और रोज़गार के ख़ौफ़ से इधर घंटों बेख़बर होकर काम में लग जाता है, ऐसे ही चाहिए था कि सतगुरु और चरन रस का ख़ौफ़ और शौक़ करके इधर भी लग जाता।

 पर असल में घाटा प्रेम और शौक़ का है, चाहे उसे शौक़ कहो चाहे ख़ौफ़। पर यह प्रेम सतगुरु की दात है। जो वे चाहें तो यह मन एक छिन में लग सकता है और सब कैफ़ियत उस वक़्त प्राप्त हो सकती है, पर वास्ते प्राप्ति इस ख़ास दया के क़ाबिलियत यानी अधिकार चाहिए और नहीं तो टक्कर मारा करे और चक्कर खाया करे, कुछ नहीं बन पड़ता है। 


इस वास्ते क्या कहा जावे, सब तरह क़सूर अपने भाग और शौक़ का है। हुज़ूर राधास्वामी दयाल की दया में कुछ संदेह नहीं है और जो चरनों में लगा रहा, तो यह कसर शौक़ और भाग की भी वे ही अपनी मेहर से एक दिन मिटा देवेंगे। उन्हीं का भरोसा रखना चाहिए और जो कभी अभ्यास के समय विशेष आनंद प्राप्त होवे, या कभी कोई सख़्त तकलीफ़ सिर पर आ पड़े, तो उसके बरदाश्त और हज़्म करने की ताक़त भी वे ही अपनी मेहर से बख़्शेंगे।


राधास्वामी

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