**राधास्वामी! 25-09-2021-आज शाम सतसंग में पढा गया बचन:
-कल से आगे:-(109)
- इसके अनन्तर प्रश्न हुआ है - क्या कारण है कि ईश्वर ने वेदों को किसी देश की भाषा में प्रकट नहीं किया किन्तु संस्कृत में किया जो किसी देशविदेष की भाषा न थी । इसका उत्तर दिया गया है- " अगर किसी मुल्क की ज़बान में इज़हार ( प्रकट ) करता तो ईश्वर तरफ़दार ( पक्षपाती ) ठहरता क्योंकि जिस मुल्क की ज़बान में इज़हार करता वेदों के पढ़ने पढ़ाने में वहाँ के लोगों को सहूलियत और दूसरे मुल्क वालों को मुश्किल होती । क्या खूब ! ईश्वर को अपने न्याय की चिन्ता हुई तो इसी बात के लिए कि संसार के लोगों को उससे प्रेरित वाणी के समझने की कठिनाई कहीं न्यूनाधिक न हो जाय ! पर क्या सृष्टि के आदि में , जब वेदों का प्रकाश हुआ , संसार के बहुत से देश बसे हुए थे और संसार में बहुत सी भाषाएँ प्रचलित थी ? देशों के बसने और भाषाओं के बनने और प्रचलित होने के लिए तो सैकड़ों वर्षों का समय चाहिये । क्या स्वामी जी के इस उत्तर से यह परिणाम नहीं निकलता कि वेद सृष्टि के आदि में नहीं किन्तु देशों के बसने और भिन्न भिन्न भाषाओं के प्रचलित होने के बाद प्रकट हुए ? इसके अतिरिक्त ईश्वर के न्याय को अब क्या हो गया कि स्वामी दयानन्द जी और उनके द्वारा आर्यसमाजी भाइयों को तो वेदों के सत्य अर्थ ज्ञात हो गये , और बाक़ी सारा संसार इस दया से वंचित है ? सायणादि आचार्यों ने ( जिनके भाष्य स्वामी दयानन्द जी ने सर्वथा अशुद्ध ठहरा दिये हैं ) और उनके भाष्यों में विश्वास रखने वालों ने क्या अपराध किया था , और वर्तमान काल के आर्यसमाजियों ने क्या पुण्य कर्म किया था , जिसके बदले में ईश्वर ने अपना साम्य का सिद्धान्त तोड़ दिया ? और यह क्या बात हुई कि समाजी भाइयों को तो वेदमन्त्र तथा उनका सत्य अर्थ अर्थात् वेद और वेदों का सत्य ज्ञान होनों प्रदान किये गये , और सृष्टि के आदि में जिन चार ऋषियों पर वेद अवतीर्ण हुए और जिन्हें संसार के सब जीवों से पवित्रतम माना जाता है , उन्हें केवल मन्त्रों पर टाल दिया गया ? क्रमशः🙏🏻राधास्वामी🙏🏻 यथार्थ प्रकाश-भाग तीसरा-परम गुरु हुज़ूर साहबजी महाराज!**
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