राधास्वामी मत संदेश
(परम गुरु हुज़ूर महाराज)
राधास्वामी मत के अभ्यासी को इन संजमों की सँभाल रखना चाहिए
129- जो कोई राधास्वामी मत में शामिल होवे और उसके मुआफ़िक़ अभ्यास शुरू करे, उसको यह संजम, वास्ते दुरुस्ती से करने अभ्यास सुरत शब्द मार्ग के, दरकार हैं:-
(1) माँस अहार न करे और न कोई नशे की चीज़ पीवे या खावे। हुक़्क़ा पीना नशे में दाख़िल नहीं है।
(2) मामूली खाने से आहिस्ता आहिस्ता क़रीब चौथाई हिस्से के कम कर देवे, और बहुत चिकने चुपड़े और स्वाद के भोजन ज़्यादा न खावे।
(3) सोने में भी कुछ कमी करे, यानी आम तौर पर छः घंटे से ज़्यादा न सोवे।
(4) संसारी लोगों से ज़रूरत के मुआफ़िक़ मेल और बर्ताव करे। उनसे ज़्यादा मेल न रक्खे और बग़ैर ज़रूरत के किसी के संसारी मामले में दख़ल न देवे।
(5) संसारी पदार्थ और इंद्रियों के भोगों की चाह फ़ज़ूल न उठावे और न उनके वास्ते फ़ज़ूल जतन करे, बल्कि जो भोग और पदार्थ मुयस्सर आवें, उनमें भी जिस क़दर मुनासिब होवे, अहतियात के साथ बर्ताव करे।
(6) वक़्त अभ्यास के बेफ़ायदा ख़याल दुनियाँ और उसके पदार्थों और भोगों के न उठावे और जो पुरानी आदत के मुआफ़िक़ ऐसी गुनावन मन में पैदा होवे, तो उसको, जिस क़दर जल्दी बने, दूर हटावे,नहीं तो अभ्यास में रस नहीं मिलेगा।
(7) सत्तपुरुष राधास्वामी दयाल और गुरू का किसी क़दर ख़ौफ़ दिल में रक्खे और उनकी प्रसन्नता में अपनी बेहतरी समझे और नाराज़ी में नुक़सान परमार्थ और स्वार्थ का। और उनके चरनों में दिन दिन प्रीति और प्रतीति बढ़ाता रहे।
(8) जहाँ तक मुमकिन होवे, किसी जीव से विरोध और ईर्षा दिल में न रक्खे।
(9) पुण्य कर्म मुआफ़िक़ दफ़ा 84 से 88 तक के, जिस क़दर बन सके, करे और पाप कर्म से, जहाँ तक बने, बचता रहे।
(10) राधास्वामी दयाल की दया का हर दम भरोसा मन में रखकर अपना अभ्यास नियम से हर रोज़ दो बार या ज़्यादा करता रहे। और पोथियों का भी थोड़ा पाठ किया करे कि उससे अभ्यास और मन और इंद्रियों की दुरुस्ती में मदद मिलेगी।
(11) सतसंग में शामिल होने का हमेशा शौक़ रक्खे और जब मौज से मौक़ा मिले, तब चेत कर होशियारी से बचन सुने और उनका मनन करके, अपने लायक़ के बचन छाँट कर, उनके मुआफ़िक़ काररवाई और बर्ताव शुरू करे।
(12) अपने मन और इंद्रियों की चाल को निरखता चले, यानी मन की चौकीदारी करे कि नाक़िस और पाप कर्मों और ख़यालों में न जावे और जहाँ तक बने, मन और माया के हाथ से धोखा न खावे।
(13) सच्चे परमार्थी यानी प्रेमी जन से मुहब्बत करे और जब वे मिल जावें, तो शौक के साथ उनका संग और ख़ातिरदारी और जो मौक़ा होवे, तो मेहमानदारी करे।
(14) अपने वक़्त का ख़याल रक्खे कि जहाँ तक मुमकिन होवे फ़ज़ूल और बेफ़ायदा कामों और बातों में मुफ़्त ख़र्च न होने पावे।
(15) जबकि कुल मालिक राधास्वामी दयाल को सर्व समर्थ और सर्वज्ञ समझा, तो जो कुछ कि स्वार्थ और परमार्थ के मामले में पेश आवे, उसको उनकी मौज समझना चाहिए, और चाहे वह मन के मुआफ़िक़ होवे या नहीं, उस मौज के साथ मुआफ़िक़त करना चाहिए, यानी तकलीफ़ को धीरज के साथ बरदाश्त करना चाहिए और तरक़्क़ी यानी सुख में परमार्थ से ग़ाफ़िल होना नहीं चाहिए।
राधास्वामी
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