*महाभारत - अर्जुन को पुत्र-शोक*
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अर्जुन आज के युद्ध में त्रिगर्तों के पीछे कुरुक्षेत्र के मैदान से दूर चले गए थे। इस आत्मघाती दस्ते के उन्मूलन के बाद अर्जुन और श्रीकृष्ण अपने शिविर को लौट रहे थे।
रास्ते में अर्जुन का दिल घबराने सा लगा। वे श्रीकृष्ण से बोले- "गोविंद! न जाने क्यों मेरा मन घबरा रहा है। मन में भारी व्यथा है। यद्यपि इसका कोई कारण मालूम नहीं पड़ता; पर कहीं महाराज युधिष्ठिर के साथ कोई दुर्घटना तो नहीं हुई ? धर्मराज कुशल से तो होंगे?"
वासुदेव ने कहा- "युधिष्ठिर, अपने भाइयों सहित सकुशल होंगे । तुम इस बात की जरा भी चिंता न करो।"
शिविर जैसे-जैसे पास आता गया... अर्जुन की घबराहट बढ़ती गई । वे बोलने लगे- "जनार्दन! क्या कारण है कि आज सदा की भांति कोई मंगलध्वनि नहीं सुनाई दे रही है? जो भी सैनिक सामने दिख पड़ता है मुझ पर निगाह पड़ते ही अपना सिर झुका लेता है। ऐसा क्यों हो रहा है? आज अभिमन्यु अपने भाइयों के साथ हंसता हुआ, मेरा स्वागत करने, क्यों नहीं दौड आ रहा है?...
ऐसी ही बातें करते करते दोनों शिवबर के अंदर आ पहुँचे। वहां युधिष्ठिर आदि जो भाई-बंधु थे, उनको देखकर अर्जुन बोला- "आप लोगों के चेहरे क्यों उतरे हुए हैं? अभिमन्यु भी नहीं दिख रहा है। हँसकर आप लोग बात क्यों नहीं करते ? क्या कारण है कि आप कोई भी, आज मेरी विजय पर मेरा स्वागत नहीं कर रहे?... मैंने सुना है द्रोणाचार्य ने आज चक्रव्यूह की रचना की थी ।अभिमन्यु को छोड़कर आपमें से कोई इस व्यूह को तोड़कर भीतर घुसना नहीं जानता है। कहीं अभिमन्यु उसे तोड़कर भीतर तो नहीं चला गया ? मैं उसे बाहर निकालने की तरकीब नहीं बता सका था। वह वहां जाकर कहीं मारा तो नहीं गया है?...
किसी के कुछ न कहने पर भी अर्जुन ने परिस्थितियों को देखकर अपने आप सारी बातें ताड़ ली और वह शोक-विह्वल होकर बुरी तरह बिलखने लगने लगा- "अरे क्या सचमुच मेरा प्यारा बेटा यमलोक पहुंच गया। युधिष्ठिर, भीमसेन, धृष्टद्युम्न, सात्यकि आप सब लोगों ने सुभद्रा के पुत्र को शत्रु के हाथों सौंप दिया।आप सबके होते हुए उसे बलि चढ़ना पड़ा। अब मैं सुभद्रा को किस तरह जाकर समझाऊँगा? द्रौपदी को कैसे मुंह दिखाऊंगा? उत्तरा को अब कौन समझाएगा? कैसे कोई उसे सांत्वना देगा?....
पुत्र के विछोह से दुःखित अर्जुन को वासुदेव ने संभाला और उसे तरह-तरह से समझाने लगे- "भैया! तुम्हें इस तरह व्यथित नहीं होना चाहिए। हम क्षत्रिय हैं। क्षत्रिय हथियारों के बल जीते हैं और हथियारों से ही हमारी मृत्यु होती है। पुण्यवानों के योग्य स्वर्ग को तुम्हारा पुत्र प्राप्त हुआ है। क्षत्रिय की यही तो कामना होती है कि युद्ध करते हुए वीरोचित रीति से प्राण-त्याग करे। तुम अधिक शोक-विव्हल होओगे तो तुम्हारे बंधु-बांधवों का मन भी अधीर हो उठेगा। उनकी भी स्थिरता जाती रहेगी।अतः शोक को दूर करो। अपने को संभालो और दूसरों को भी ढांढ़स बंधाओ।"...
फिर अर्जुन ने युधिष्ठिर से अभिमन्यु के चक्रव्यूह में प्रवेश करने से संबंधित सारी बातें जानी। यह भी जाना कि, किस प्रकार अभिमन्यु के व्यूह में प्रवेश के उपरांत सिंधु-नरेश जयद्रथ ने, घोर संग्राम कर पांडवों की सारी सेना को, व्यूह में प्रवेश से रोक दिया था। पांडव-वीर यदि अभिमन्यु के साथ होते, तब यह दुखद घटना नहीं होती।....
युधिष्ठिर की बात पूरी भी न हो पाई थी कि अर्जुन आर्त्त स्वर में- "हा बेटा !" कहकर, मूर्छित होकर गिर पड़ा।
चेत आने पर वह उठे और प्रतिज्ञा कर बोले- "जिसके कारण मेरे प्रिय पुत्र की मृत्यु हुई, उस जयद्रथ का मैं कल सूर्यास्त होने से पहले वध करके रहूंगा। युद्ध क्षेत्र में जयद्रथ की रक्षा करने को यदि आचार्य द्रोण और कृप भी आयें तो उनको भी मैं अपने बाणों की भेंट चढ़ा दूंगा।"...
यह कहकर अर्जुन ने गांडीव धनुष को जोर से टंकार दिया। श्रीकृष्ण ने भी पाञ्चजन्य शंख बजाया। यह देख भीमसेन बोल उठे- "गांडीव की यह टंकार और पाञ्चजन्य की ध्वनि, धृतराष्ट्र के पुत्रों के सर्वनाश की सूचना है।"...
*ॐ जय श्रीकृष्ण*
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