राधास्वामी!! 01-09-2020-
आज शाम के सतसंग में पढे गये पाठ-
(1) दास हुआ चरनन में लौलीन। ध्यान गुरु लाय ताडी।।-( करुँ क्या अस्तुत उनकी गाय। चरन पर बलिहारी।।) (प्रेमबानी-3-शब्द-15,पृ.सं. 357-58)
(2) चरन गुरु में लाग सुरत क्यों सोवई। जनम अमोलक पाय वृथा क्यों खोवई।।-( ऐसा महल अनूप वही स्रुत पावही। राधास्वामी चरन अधार हिये जो लावही।।) (प्रेमबिलास-शब्द-45,पृ.सं.56,57)
(3) यथार्थ प्रकाश-भाग पहला- कल से आगे।
🙏🏻राधास्वामी🙏🏻
राधास्वामी!! -
01- 09-2020-आज शाम के सत्संग में पढा गया बचन
- कल से आगे-(96)
- अब जरा आपकी योग्यता और अभिज्ञता का हाल देखिये। पहले तो यह कडी या तुक महल्ला 5 की है न कि महल्ला 4 की। स्वयं स्वामी दयानंद जी ने सत्यार्थप्रकाश में यह कडी उद्धृत करके सुखमनी पौडी 7 का उल्लेख किया है, और प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि सुखमनी साहब के रचने वाले पाँचवी बादशाही अर्थात गुरु अर्जुन देव हैं।
दूसरे , राधास्वामी मत के अनुयायियों को क्या पड़ी है कि अपने किसी सिद्धांत के पक्ष में आर्य समाजियो के समक्ष श्री ग्रंथसाहब का प्रमाण उपस्थित करें। तीसरे, स्वामी दयानंद जी ने इस कड़ी को वेदों की निंदक समझा है । (देखिये हिंदी सत्यार्थप्रकाश , तेरहवाँ एडीशन पृष्ट 378)। चौथे , पंडितजी ने जो कडी लिखी है वह मूलपाठ से नही मिलती है।
शुद्ध कडी यह है:- साध की महिमा वेद न जानहि। जेता सुने तेता बिख्यानहि।। पाँचवें , संत शब्द का अर्थ 'नाममात्र के सन्त' और 'वेद न' का अर्थ 'वेदन' अर्थात वेदों की , किस नियम से निकाला गया? छठे, यदि इस कडी का अर्थ वही है जो पंडित जी ने ईजाद किया है तो इससे अगली कड़ियों के क्या अर्थ होगें?
क्या उनमें भी साध का अर्थ 'नाममात्र' के या भगवें पोश बेपढे लिया जायगा ? अगली कड़ियाँ ये है :- साध की उपमा तिह गुन ते दूर । साध की उपमा रही भरपूर। साध की सोभा का नाहिं अंत। साध की सोभा सदा बेअन्त। साध की सोभा ऊच से ऊची। साध की सोभा मूच ते मूची। साथ की सोभा साध बन आई। नानक साध प्रभभेद न भाई।८,७। यदि पंडित विश्वामित्र जी के मतानुसार साध शब्द का अर्थ पाखंडी और नाममात्र का फकीर है तो क्या गुरु अर्जुन देव साहब इन कडियों के द्वारा यह निश्चय कराया चाहते हैं कि पाखंडी साध की महिमा तीन गुणों की हद से परे तक पहुंची हुई है और उसकी शोभा का कोई अन्त नहीं है, और उसकी शोभा ऊँची से ऊँची और उसकी सोभा साध ही वर्णन कर सकते हैं और उसमें अर्थात नाममात्र के साध और प्रभु अर्थात ब्रह्म में कोई भेद नहीं है? नहीं, नहीं ऐसा अधर्म न करो। विवादास्पद कड़ी में तथाच समस्त अष्टपदि में ' साध' शब्द का अर्थ सच्चा साध है। संतमत की परिभाषा में साध उस महापुरुष को कहते हैं जो ब्रह्मांड की चोटी के स्थान अर्थात् सुन्नपद की गति प्राप्त करें। यह स्थान तीन गुणों की सीमा के परे है और जोकि वेदों में तीन गुणों की सीमा के अंतर्गत ही का भेद वर्णित हुआ है इसलिए कहा गया कि वेद सच्चे साध की महिमा से अनभिज्ञ है। गुरु महाराज का यह बचन वेदों का निंदक नहीं है। अपितु सच्चे साध की महिमा का द्योतक है। अर्थात इस बचन के द्वारा गुरु महाराज वेद कि निंदा नहीं किंतु सच्चे साध की अपार महिमा का वर्णन किया चाहते हैं। उदाहरणार्थ देखिए- जब हम कहते हैं कि अमुक बच्चे का चेहरा चंद्रमा से अधिक सुंदर है तो हमारा अभिप्राय चंद्रमा की निंदा करने का नहीं होता वरंच बच्चे की सुंदरता की प्रशंसा का होता है । इसी प्रकार गुरु महाराज ने इस कडी और समस्त अष्टपदी में सच्चे साध की महिमा का वर्णन किया है और अंत में सच्चे साध की महिमा वर्णन करने के लिए सच्चे साध को प्रभु अर्थात परब्रह्म के बराबर का पद दिया है। और सच पूछो तो 'नानक साध प्रभ भेद न पाई' में उपनिषद के वाक्य 'ब्रह्मविद ब्रह्मैव भवति' का और पहली दो कड़ियों में भागवदगीता अध्याय 2 के श्लोक 45 और 46 का उल्था किया गया है। 🙏🏻राधास्वामी🙏🏻 यथार्थ प्रकाश- भाग पहला- परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज!
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