राई को राई ही मानें / कृष्ण मेहता
प्रस्तुति - उषा रानी /+राजेंद्र प्रसाद सिन्हा
कई लोग दैनिक जीवन में घटती रहने वाली छोटी−छोटी घटनाओं को बहुत अधिक महत्व देने लगते हैं और राई को पर्वत मानकर क्षुब्ध बनें रहते हैं। यह मन की दुर्बलता ही है। जीवन एक खेल की तरह खेले जाने पर ही आनन्दमय बन सकता है। खिलाड़ी लोग क्षण-क्षण में हारते-जीतते हैं। दोनों ही परिस्थितियों में वे अपना मानसिक संतुलन ठीक बनाये रहते हैं। कोई खिलाड़ी यदि हर हार पर सिर धुनने लगे और हर जीत पर हर्षोन्मत हो जाय तो यह उसकी एक मूर्खता ही मानी जायगी। संसार एक नाट्यशाला है। जीवन एक नाटक है। जिसमें हमें अनेक तरह के रूप बनाकर अभिनय करना होता है।
कभी राजा, कभी बन्दी, कभी योद्धा कभी भिकारी बनकर पार्ट अदा करते हैं। नट केवल इतना ही ध्यान रखता है कि हर अभिनय को वह पूरी तन्मयता के साथ पूरा करें। दर्शक, राजा या भिखारी बनने के कारण नहीं अभिनेता की इसलिए प्रशंसा करते हैं कि जो भी काम सौंपा गया था उसने उसे बखूबी और दिलचस्पी से किया। हमें सफलता का ही नहीं असफलता का भी अभिनय करने को विवश होना पड़ता है। इन परिस्थितियों में हम अपना मानसिक सन्तुलन क्यों खोते। हर पार्ट को पूरी दिलचस्पी और हँसी−खुशी से पूरा क्यों न करें? जो असफलता और परेशानी के अभिनय को ठीक तरह खेल सकता है वस्तुतः वही प्रशंसनीय खिलाड़ी है। हमें जीवन नाटक को खेलना ही चाहिए, पर अन्तस्तल तक उसकी कोई ऐसी प्रतिक्रिया न पहुँचने देनी चाहिए जो दुखद हो।हमें भविष्य की बड़ी से बड़ी आशा करनी चाहिए किन्तु बुरी से बुरी परिस्थिति का मुकाबला करने के लिए तैयार करना चाहिए।
राधे राधे
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