. "अटूट बन्धन"
प्रस्तुति - प्रतिमा सिन्हा / अनामिका सिन्हा
यमुना नदी के किनारे फूस की एक छोटी से कुटिया में एक बूढ़ी स्त्री रहा करती थी। वह बूढ़ी स्त्री अत्यंत आभाव ग्रस्त जीवन व्यतीत किया करती थी। जीवन-यापन करने योग्य कुछ अति आवश्यक वस्तुयें, एक पुरानी सी चारपाई, कुछ पुराने बर्तन बस यही उस स्त्री की संपत्ति थी। उस कुटिया में इन सबके अतिरिक्त उस स्त्री की एक सबसे अनमोल धरोहर भी थी। वह थी श्री कृष्ण के बाल रूप का सुन्दर सा विग्रह। घुटनों के बल बैठे, दोनों हाथों में लड्डू लिये, जिनमें से एक सहज ही दृश्यमान उत्पन्न होता था। मानो कह रहे हों कि योग्य पात्र हुए तो दूसरा भी दे दूँगा। तेरे लिये ही कब से छुपाकर बैठा हूँ। उस वृद्धा ने बाल गोपाल के साथ स्नेह का एक ऐसा बंधन जोड़ा हुआ था जो अलौकिक था, एक अटूट बंधन, हृदय से हृदय को बाँधने वाले। शरणदाता और शरणागत के बीच का अटूट बंधन ! उस बंधन में ही उस वृद्धा स्त्री को परमानन्द की प्राप्ति होती थी। वृद्धा की सेवा, वात्सल्य-रस से भरी हुई थी, वह बाल गोपाल को अपना ही पुत्र मानती थी। उसके लिये गोपालजी का विग्रह न होकर साक्षात गोपाल है; जिसके साथ बैठकर वह बातें करती, लाड़ लड़ाती है, स्नान-भोग का प्रबंध करती।
वृद्धा की आजीविका के लिये कोई साधन नहीं था, होता भी क्या, वह जाने या फिर गोपाल ! चारपाई के पास ही एक चौकी पर गोपाल के बैठने और सोने का प्रबंध कर रखा था। चौकी पर बढ़िया वस्त्र बिछा कर बाल गोपाल का सुन्दर श्रृंगार करती। वृद्धा कुटिया का द्वार अधिकांशत: बंद ही रखती। वृद्धा की एक ही तो अमूल्य निधि थी, कहीं किसी की कुदृष्टि पड़ गयी तो ? कुटिया के भीतर दो प्राणी, तीसरे किसी की आवश्यकता भी तो नहीं। और आवे भी कौन ? किसी का स्वार्थ न सधे तो कौन आवे ? वृद्धा को किसी से सरोकार नहीं था।
दिन भर में दो-तीन बार गोपाल हठ कर बैठता है कि मैय्या मैं तो लड्डू खाऊँगा, तो पास ही स्थित हलवाई की दुकान तक जाकर उसके लिये ले आती, कभी जलेबी तो कभी कुछ और। पहले तो हलवाई समझता था कि स्वयं खाती होगी पर जब उसे कभी भी खाते न देखा तो पूछा -"मैय्या ! किस के लिए ले जावै है मिठाई ?" वृद्धा मुस्कराकर बोली -"भैय्या ! अपने लाला के लिए ले जाऊँ हूँ।" हलवाई ने अनुमान किया कि वृद्धा सठिया गयी है अथवा अर्ध-विक्षिप्त है सो मौन रहना ही उचित समझा। वैसे भी उसे क्या, मैय्या, दाम तो दे ही जाती है, अब भले ही वो मिठाई का कुछ भी करे।
वृद्धा मैय्या, एक हाथ से लठिया ठकठकाती, मिठाई को अपने जीर्ण-शीर्ण आँचल से ढककर लाती कि कहीं किसी की नजर न लग जावे । कुटिया का द्वार खोलने से पहले सशंकित सी चारों ओर देखती और तीव्रता से भीतर प्रवेश कर द्वार बंद कर लेती। एकान्त में लाला, भोग लगायेगा, लाला तो ठहरे लाला! कुछ भोग लगाते और फिर कह देते कि-"अब खायवै कौ मन नाँय ! तू बढिया सी बनवायकै नाँय लायी।" मैय्या कहती "अच्छा लाला ! कल हलवाई से कहके अपने कन्हैया के लिए खूब बढिया सो मीठो लाऊँगी। और खाने का मन नहीं है तो रहने दे।" वृद्धा माँ का शरीर अशक्त हो चुका था, अशक्ततावश नित्य-प्रति कुटिया की सफाई नहीं कर पाती सो कुछ प्रसाद कुटिया में इधर-उधर पड़ा रह जाता। प्रसाद की गंध से एक-दो चूहे आ गये और प्रसन्नता से अपना अंश ग्रहण करने लगे। कभी-कभी तो लाला के हाथ से खाने की चेष्टा करने लगते।
लाला अपनी लीला दिखाते और घबड़ाकर चिल्लाते-"मैय्या ! मैय्या ! जे सब खाय जा रहे हैं। मोते छीन रहे हैं।" मैय्या, अपने डंडे को फटकारकर चूहों के उपद्रव को शांत करती। एक बार द्वार खुला पाकर एक बिल्ली ने चूहों को देख लिया और वह उनकी ताक में रहने लगी। फूस की झोंपड़ी में छत के रास्ते उसने एक निगरानी-चौकी बना ली और गाहे-बगाहे वहीं से झाँककर चूहों की टोह लेती रहती। चूहा और बिल्ली की धींगामस्ती के बीच, दो "अशक्त प्राणी"; "एक बालक, एक वृद्धा !" बालक भय से पुकारे और वृद्धा डंडा फटकारे।
एक रात्रि के समय सब निद्रा के आगोश में थे। मैय्या भी और लाला भी। तभी बिल्ली को कुछ भनक लगी और उसने कुटिया के भीतर छलांग लगा दी। "धप्प" का शब्द हुआ। चूहे तो भाग निकले किन्तु "लाला" भय से चित्कार कर उठा- "मैय्या ! बिलैया आय गयी ! मैय्या उठ !"
मैय्या उठ बैठी और अपने सोटे को फटकारा, बिल्ली जहाँ से आयी थी, वहीं, त्वरित गति से भाग निकली। मैय्या ने गोपाल को हृदय से लगाया और बोली -"लाला ! तू तौ भगवान है, तब भी बिलैया सै डरे है।" लाला प्रेम पूर्वक बोले-"मैया ! भगवान-वगवान मैं नाँय जानूँ, मैं तौ तेरो लाला हूँ, मोय तो सबसे डर लगे है। तू तौ मोय, अपने पास सुवाय ले कर, फिर मोय डर नाँय लगेगौ।"
वृद्धा माँ, विभोर हो उठी, गाढ़ालिंगन में भर लिया, मस्तक पर हाथ फेरा और खटोले पर अपनी छाती से सटाकर लिटा लिया।
वृद्धा माँ, वात्सल्य के दिव्य-प्रेम-रस से ऐसे भर गयी है कि उसके सूखे स्तनों से दिव्य अमृत-स्त्रोत प्रकट हो गया और गोपाल बड़े प्रेम से भरकर इस दिव्य दुग्ध-रस का पान कर रहे हैं। एक बार स्तन से मुँह हटाकर तुतलाकर बोले "मैय्या ! यशोदा ! किन्तु मैय्या को सुध कहाँ ? कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड उसकी चरण वंदना कर रहे थे। उसका स्वरुप अनन्तानन्त ब्रह्माण्डों में नहीं समा रहा था। अनंत हो चुकी थी मैय्या, अब शब्द कहाँ? भक्त कहाँ? भगवान कहाँ? मैय्या तो कन्हैया में लीन हो चुकी थी।
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"जय जय श्री राधे"
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