"क्षमा परम बल है। सबसे सबल है. क्षमा निर्बलता का प्रतीक नहीं बल्कि क्षमा मनुष्य का सबसे विराट गुण है । बलवानों का क्षमा एक अतुलनीय भूषण है।" / कृष्ण मेहता
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दूसरे को क्षमा करना स्वयं को क्षमा करना है।दूसरे को क्षमा न करना,स्वयं को क्षमा नहीं करना है।दूसरा है भी कहाँ?
द्रष्टा ही दृश्य है।
देखने वाला खुद दीख रहा है।अनुभव कर्ता स्वयं अनुभव हो रहा है।विश्लेषणकर्ता स्वयं विश्लेषित हो रहा है।
इस प्रकार स्वयं पर आजाना दुर्लभ अनुभूति है।
द्रष्टा, दृश्य आमनेसामने प्रतीत होते हैं,हैं नहीं।
द्रष्टा स्वयं दृश्य है।स्वयं ही बंटा हुआ है कार्य-कारण में।स्वयं पर लौटनेवाले को इसका पता चल जाता है।फिर अभ्यास करना ही शेष रहता है अभीयहां।मुख्य सूत्र यही है भी यही।
संचित संस्कारों के रुप में स्वयं सतत घट रहा है द्रष्टा-दृश्य में विभाजित होकर।इसे रोका नहीं जा सकता।सिर्फ होने दिया जा सकता है अभी यहां।
जिसे हम दूसरे का पसंद नापसंद अनुभव मानते हैं वह अपना ही पसंद या नापसंद अनुभव होता है।तथाकथित दूसरे के माध्यम से हम अपने ही अनुभव स्वरुप को पसंद या नापसंद कर रहे होते हैं।
तो करें स्वयं को पसंद नापसंद लेकिन दूसरे को तो भूल ही जायें।देखनेवाला ही दीख रहा है।
"The observer is the observed."
मन में जो प्रक्षेपण आते हैं वे अपने ही संस्कारों से आ पाते हैं।जिसके जैसे संस्कार।इसके कारण अलग अलग लोगों का अलग अलग जगह ध्यान होता है।वे अलग अलग व्यवहार करते हैं।
हम कहते हैं उसका ध्यान भगवान में ही क्यों रहता है,वह भगवान की-शांति की-प्रेम की बात ही क्यों करता है?क्योंकि वह ऐसा ही है।कोई हिंसा,अन्याय,अत्याचार की बात ही क्यों करता रहता है हर वक्त?क्योंकि वह ऐसा ही है।उसके प्रक्षेपण उसके भीतर से ही आरहे हैं।
गीता ने इसे ईश्वर की माया द्वारा यंत्रारुढ के समान जीवों को घुमाया जाना कहा है।
'भ्रामयन्सर्वभूतानि यंत्रारुढानि मायया।'
इसे पहचानना चाहिये अन्यथा हम सैंकडों वर्षों तक इसी तरह घुमाये जाते रह सकते हैं।
माया द्वारा क्यों कहा?क्योंकि जो जीव जैसा होता है स्वयं विभाजित कार्य-कारणरुप में वैसा ही घुमाया जाता है।इस घूमने का अंत हो सकता है यदि वह जानले कि प्रक्षेपक ही प्रक्षेपित है।द्रष्टा ही दृश्य है।अनुभव कर्ता ही अनुभव हो रहा है हर पल,हर क्षण।
जब एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का विश्लेषण कर रहा होता है तब उसे पता ही नहीं चलता कि ऐसा करके वह स्वयं विश्लेषित हो रहा है।
इस तरह निंदक स्वयं निंदित होता है।प्रशंसक स्वयं प्रशंसित होता है।
यह बडी महत्वपूर्ण, गूढ और स्वज्ञान(सेल्फनोलेज)की बात है।
इसे जानने पर फिर ध्यान स्वयं पर ही रहता है अभीयहां, बिना बचे,बिना नाम दिये।
नाम देने से ध्यान दूसरी जगह रहता है,ऐसा लगता है किसी और की बात हो रही है जबकि देखने वाला ही दीख रहा होता है,प्रक्षेपक ही प्रक्षेपित हो रहा होता है।
The projector is the projected.
ऐसे में ध्यान स्वयं पर आजाना लाजमी है।
किसीका नाम नहीं लिया जा सकता।
भले ही नाम लें किसीका मगर अनुभव तो स्वयं ही तो हो रहा है।भले हम चर्चा करें किसी सात्विक, राजसी,तामसी आदमी की मगर वे अनुभव अपने ही घट रहे होते हैं।
जब भी जिसकी भी चर्चा हम करते हैं उसके अनुभव के रुप में "हम स्वयं" अनुभव होते हैं तो क्या करेंगे?
तबवहां मन के रहने का कारण है नामकरण जबकि नाम देनेवाला स्वयं होता है।
शब्दकर्ता स्वयं शब्दीकृत होता है।
"The namer is the named."
व्यर्थ ही नहीं झूठ भी है किसीका नाम लेना।नाम लेना हो तो अपना ही नाम लेना चाहिए तब कथित दूसरा स्वयं के रुप में घटते देखा जा सकता है।आंखों के आगे दृश्य जो भी हो उससे कोई भी फर्क नहीं पडता।अनुभव तो स्वयं हो रहा है,इसे जाना समझा जा रहा है फिर क्या?
बाधा पसंदनापसंद की,रागद्वेष की आती है।हम अपने पसंद अनुभव को दूसरे का अनुभव मानकर उसे पाना चाहते हैं;अपने नापसंद अनुभव को दूसरे का अनुभव मानकर उससे बचना चाहते हैं,उससे मुक्ति पाना चाहते हैं।मुक्ति संभव नहीं, सिर्फ एक ही राहत संभव है कि तमाम पसंद नापसंद अनुभव अपने ही हैं,किसी व्यक्ति, घटना, परिस्थिति के नहीं ।फिर कोई चाहे कितना भी अच्छा या बुरा मालूम पडता हो उससे कोई फर्क नहीं पडता।खुद को ही समझना व संभालना रहता है।किसी और को प्रिय या अप्रिय मानने पर बडी समस्या उत्पन्न होती है,बडा संघर्ष होता है।
हमेशा ध्यान दूसरी जगह बना रहता है।ऐसे में स्वस्थ रहने,सुखपूर्वक रहने की बात ही दुर्लभ हो जाती है।
इसलिए स्वस्थता व सुखशांति चाहिये तो यही उपाय है कि "अभी यहां" दूसरे का पसंदनापसंद अनुभव हर हाल में अपना ही पसंदनापसंद अनुभव है इसे जानना है बिना बचे क्योंकि दूसरा है नहीं, बिना नाम दिये क्योंकि दूसरा है नहीं।नाम देने से लगता है कोई और कारण है तब उसे पाने या हटाने की जद्दोजहद शुरू हो जाती है।इसमें कभी सफलता नहीं मिलती क्योंकि स्वयं को ही पाने या हटाने की जद्दोजहद चल रही होती है।
अतः जो लोग बिना जाने दूसरों को क्षमा करते हैं वे अपने आपको क्षमा करते हैं।
लेकिन जो सत्य को जान लेता है वह अपनेआपको क्षमा करता है बिना दूसरे को बीच में लाये।और क्या हो सकता है दुनिया भर की राजसीतामसी वृत्तियां भरी पडी हैं भीतर।उनके अलगाव में जीनेवाले द्रष्टा बने बैठे हैं।
पर स्वयं ही उन सभी वृत्तियों के रुप में निरंतर घट रहे हैं तो आत्मसाक्षी का जन्म होता है।भीतर ही शांति प्रकट हो जाती है।
स्वयं कहां जायेगा शांति की तलाश में?रागद्वेष का अध्याय ही पूरा हो जाता है।वह अपने आपमें स्वस्थ,शांत,सुखपूर्ण हो जाता है।जब तक "दूसरे" का भ्रम है,किसी और को कारण माना जा रहा है तब तक यह संभव नहीं।उसे अपनी खोज जारी रखनी होगी।और यही सही है।
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