*राधास्वामी!! 01-04-2021-आज सुबह सतसँग में पढे गये पाठ:-
(1) दया गुरु की हुई अब भारी। मैं भी आरत करन बिचारी।।-(राधास्वामी नाम सम्हारा। रुप अनूप हृदय में धारा।।) (सारबचन-शब्द-11-पृ.सं.578,579)
(2) गुरु प्यारे बचन सुन हो गई दीन।।टेक।। जग ब्योहार असार पहिचाना। मन इंद्री को ठगिया चीन्ह।।-( राधास्वामी चरन पकड घर चाली। मेहर दया उन गहिरी कीन।।) (प्रेमबानी-3-शब्द-12-पृ,सं.18,19)
सतसँग के बाद:-
(1) राधास्वामी मूल नाम।।
(2) अतोला तेरी कर न सके कोई तोल।।
(3) बढत सतसँग अब दिन दिन। अहा हा हा ओहो हो हो।।
🙏🏻
*परम गुरु हुजूर मेहताजी महाराज -
भाग 1- कल से आगे:
- 4 जून 1941 के सत्संग में यह शब्द पढ़ा गया :-
सजन प्यारे मन की घुंडी खोल।( प्रेम बिलास, शब्द 128)
पाठ के बाद 'सत्संग के उपदेश' भाग 1- से बचन नंबर 45 'सत्संग की असली क्रिया सतगुरु भक्ति है' पढ़ा गया।
हुजूर ने बचन के बीच में ही फरमाया-पिछले सप्ताह मैंने आप लोगों से इसी विषय पर बातचीत की थी जिसमें मैंने कहा था कि सत्संग में शामिल होकर केवल बाहरी कार्रवाई करने से कोई लाभ नहीं। इसके लिए अंतर में परिवर्तन होना आवश्यक है। आज का बचन भी जो इस समय पढ़ा जा रहा है ऊपर के विषय पर विशेष प्रकाश डालता है। आप इसे ध्यान पूर्वक सुनें।।
बचन समाप्त होने पर फरमाया- यह बचन हमारे लिए बहुत महत्व रखता है। अच्छा हो कि कल शाम के सत्संग में इसे फिर पढा जाय।।
🙏🏻 राधास्वामी🙏🏻**
**परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज-
[ भगवद् गीता के उपदेश]-
【 11वां अध्याय -विश्वरूप दर्शन का बयान】
[ अर्जुन कृष्ण महाराज से प्रार्थना करता है कि उसे अपना ईश्वरी रूप दिखलावें। महाराज उसे दिव्य चक्षु देकर विराट् स्वरूप का दर्शन कराते हैं। लेकिन अर्जुन दर्शन की ताब न लाकर घबरा जाता है।
महाराज धैर्य दिलाते हैं और यह दिखला व समझा कर कि वह काल भगवान है और मनुष्य मन से जाति को समेटने के लिये संसार में प्रकट हुए हैं उसकी हिम्मत बढ़ाते हैं।
अर्जुन उनके चरणों में गिरकर बार-बार स्तुति करता है और पिछली सब बेअदबियों के लिए क्षमा माँगता है प्रार्थी होता है कि मनुष्य रूप में दोबारा प्रकट होने की मौज करें। कृष्ण महाराज दोबारा मनुष्य रूप धारण करके विश्वरुप दर्शन की महिमा वर्णन करते हैं।
दसवें अध्याय में महाराज ने अपने। तई जगत की कुल वस्तुओं के अंदर मौजूद बयान किया था अब अपना विश्वरुप दिखला कर कुल रचना अपने अंदर मौजूद साबित करते हैं- तब कहीं अर्जुन के दिल में शंका और भ्रम दूर हुए।]
अर्जुन ने जवाब दिया- महाराज ! मेरे ऊपर कृपा करने के निमित्त आपने जो अध्यात्म विद्या (आतमज्ञान) के निहायत गुप्त भेद वर्णन किये उन्हें सुन कर मेरा भ्रम जाता रहा। मैंने आपके श्रीमुख से भूतों (दुनिया के सामानों व जानदारों) की उत्पत्ति व नाश का हाल और आपके सदा कायम रहने वाली महिमा का भी बयान विस्तार से सुन लिया है। हे परमेश्वर! हे पुरुषोत्तम ! आप सचमुच ऐसे ही हैं जैसे आपने बयान फर्माया । मुझे अब आपके ईश्वरी रुप( जिस रूप से आप कुल जगत के ईशवर हो रहे है) देखने की इच्छा हैं। अगर आप समझते हैं कि मैं आपका वह रुप देख सकता हू तो हे योगेश्वर! मुझे उस अविनाशी रूप का दर्शन कराइये।।
श्री कृष्ण जी ने फरमाया- अच्छा, लो अर्जुन! मेरे सैकड़ों हजारों रुप, तरह तरह के दिव्य और अनेक प्रकार के रंग रूप वाले।【5】 क्रमशः
🙏🏻 राधास्वामी🙏🏻
**परम गुरु हुजूर महाराज
- प्रेम पत्र -भाग 1- कल से आगे :-(11)-
सिवाय इसके वेदांत शास्त्र में यह भी लिखा है कि तीन शरीर यानी स्थूल, सूक्ष्म और कारण और इन्हीं तीनों शरीरों के अंतर्गत पाँच कोश यह है- अन्नमय कोश यानी स्थूल शरीर, प्राणमय कोश, मनोमय कोश और ज्ञानमय कोश, यह तीनों कोश सूक्ष्म शरीर में दाखिल है,और आनंदमय कोश कारण शरीर कहलाता है। और चौथा जीव साक्षी यानी तुरिया पद है। कारण शरीर अभिमानी जीव को प्राज्ञ और सूक्ष्म को तेजस और स्थूल को भी विश्व कहते हैं।
अब ख्याल करो कि पाँचों कोश यानी तीनों शरीरों के अंदर मनुष्य का निज रूप यानी आत्मा पोशिदा है और जब तक इन कोशों या शरीरों के गिलाफों को अभ्यास करके नहीं छेदेगा, तब तक अपने स्वरूप यानी आत्मा का दर्शन नहीं पावेगा। यह सब गिलाफ पिंड में है जो, कि मलीन माया का देश है और जिसकी हद छः चक्र में है।
इसी तरह ब्रह्मांड में, जहाँ कि शुद्ध माया है, ब्रह्म के भी चार स्वरूप है- एक विराट यानी माया मिश्रित ब्रह्म जो माया से मिल कर रचना कर रहा है, दूसरा हिरण्यगर्भ शबल को मदद दे रहा है और जहाँ से सूक्ष्म मसाला रचना का प्रगट हुआ, और तीसरा अव्याकृत जहांँ से बीज रूप माया जाहिर हुई और चौथा शुद्ध ब्रह्म है। जब इन सब गिलाफों को अभ्यास की मदद से तोड़ कर पार जावे तब शुद्ध ब्रह्म से मेला होवे और वहाँ जो बचन सच्चे ज्ञानी और जोगेश्वरो ने एकताई के कहे हैं सब सही और दुरुस्त मालूम पड़ेंगे।
और जो कोई बिना अभ्यास किए हुए नीचे के देश में, चाहे शुद्ध माया होवे, चाहे मलीन, उन बचनों को सुन कर और पढ़ कर अपने तई शुद्ध ब्रह्म स्वरूप मानता है, यह बड़ी गलती है। और देखने में आता है कि ऐसे कहने वालों की हालत बिल्कुल नहीं बदलती, यानी उनके स्वभाव और आदत मुआफिक संसारी जीवो के हैं और मन और इन्द्री उन पर सवार रहते हैं और मेलों और तमाशा और शहरों और कस्बों में उनको नचाते रहते हैं।
क्या ब्रह्म या आत्मानंद में इस कदर गति भी नहीं कि जो एक स्थान पर ठहर कर अपने अंतर में रस लेकर शांति हासिल करें। क्रमशः
🙏🏻राधास्वामी🙏🏻
**राधास्वामी🙏🏻
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