Monday, March 22, 2021

सतसंग RS सुबह 23/03

 **राधास्वामी!!-   23-03-2021-  /   आज सुबह सतसँग में पढे गये पाठ:-                                     

 

(1) होली खेले सुरतिया सतगुरु सँग।।टेक।।

अबीर गुलाल थाल भर लाई। भर भर डालत रंग।।

-(राधास्वामी होय प्रसन्न मेहर से।

 सबको लगाया अपने अंग।।

 करनाल ब्राँच-481 उपस्थिति!)

 (प्रेमबानी-2-शब्द-49-पृ.सं.31)                                                                     

    (**राधास्वामी!!- 23-03-2021- आज सुबह सतसँग में पढे गये पाठ:-

 (1) होली खेले सुरतिया सतगुरु सँग।।टेक।।

अबीर गुलाल थाल भर लाई।

भर भर डालत रंग।।-

(राधास्वामी होय प्रसन्न मेहर से।

सबको लगाया अपने अंग।।

 करनाल ब्राँच-481 उपस्थिति!) (प्रेमबानी-2-शब्द-49-पृ.सं.31)


(2) गुरु प्यारे चरन मेरे प्रान अधार।।टेक।।

 क्या महिमा चरनन की गाऊँ।

जीव पकड उन उतरें पार।-

(राधास्वामी दया चली अब घट में। सुन सुन धुन स्रुत हो गई सार।।)

(प्रेमबानी-3-शब्द-4-पृ.सं.13,14)

सतसँग के बाद:-

(1) राधास्वामी मूल नाम।।

(2) अतोला तेरी कर न सके कोई तोल।।

 (3) बढत सतसँग अब दिन दिन। अहा हा हा ओहो हो हो।।

(प्रेमी. भाई मेलारामजी फ्राँस।) 🙏🏻राधास्वामी🙏🏻)


**परम गुरु हुजूर मेहताजी महाराज


-भाग 1-कल से आगे :-

 फिर यह शब्द पढ़ा गया:

- धन्य धन्य सखी भाग हमारे, धन्य गुरु का संग री।।( प्रेमबिलास- शब्द-126)

फरमाया- अभी पाठ के पहले मैं सास बहू की आपसी खींचतान का जिक्र कर रहा था। इस शब्द के अंदर इन झगड़ों को दूर करने का निहायत उम्दा तरीका दिया गया है। इसमें कहा गया है कि 'जानू न कोई ढंग री'।इसका मतलब इस मौके पर हमारी समझ के अनुसार यह कहना मुनासिब होगा कि बहू का ससुराल जाने पर ऐसा अंग हो और वह यह ख्याल करें कि उसको कोई ढंग व शऊर नहीं आता है।

 मैं हर तरह से अजीज व गरीब हूँ। आप लोग जो कुछ मुझे सिखाना चाहें सिखाएं। मैं सीखने को तैयार हूँ। तो ससुराल के लोग कितने ही सख्त मिजाज क्यों न हो, फिर भी दोनों फरीकों में कोई खींचातानी और अनबन नहीं हो सकती। इसलिए हर बहू को यही अंग लेकर ससुराल में जाना चाहिए ।

इसके बाद यह शब्द पढ़ा गया-

स्वामी तुम काज बनाए सबन के।।

( प्रेमबिलास, शब्द 104)

हुजूर ने फरमाया आप लोग अवसर के अनुसार कोई बहुत उम्दा शब्द निकालें।

 मौज से शब्द निकला

- सतगुरु प्यारे ने सुनाई। प्रेमा बानी हो।।

 (प्रेमबानी, भाग-3- बचन 12,(4) शब्द (45)

फिर हुजूर ने फरमाया -एक दूसरे किस्म का शब्द और निकाला जाए ।

तब शब्द निकला-

 गुरु धरा शीश पर हाथ । मन क्यों सोचकरें।

।( प्रेमबानी,भाग-3,बचन-15,शब्द-3) 🙏🏻राधास्वामी🙏🏻



**परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज

-[ भगवद् गीता के उपदेश]-

 कल से आगे :-

जो प्रेम से मुझे पत्ता या फूल, फल या जल पेश करते हैं मैं उन शुद्ध चित्तवालों की यह भेंट कबूल करता हूँ क्योंकि यह प्रेम से पेश की गई है।

 हे अर्जुन ! जो काम करो, जो खाओ, जो होम करो, जो दान करो, जो तप करो वह सब मेरे अर्पण करो। इस तरह तुम शुभ अशुभ फल देने वाले कर्मों के बंधन से छूट जाओगे और इन से छूट कर सन्यास योग से युक्तचित्त होकर (अर्थात कर्मफल के त्याग से अंतर में जुड़े हुए) तुम मुझे प्राप्त होगे।।

सब भूतो (मौजदूतों) के साथ मेरा एक सा बर्ताव है। मुझे न किसी से द्वेश है न राग लेकिन जो लोग प्रेम से मेरा भजन करते हैं वेे मुझ में निवास करते हैं और मैं भी उनमें निवास करता हूँ। अगर कोई बढ़ का पापकर्मी भी एकचित्त (अनन्यभाक्) हो कर मेरी भक्ति करता है तो उसे साधुजन ही समझना चाहिए क्योंकि उसका इरादा नेक है।

【30】 क्रमशः🙏🏻 राधास्वामी🙏🏻


**परम गुरु हुजूर महाराज

- प्रेम पत्र -भाग 1- कल से आगे:-( 8)-


जाहिर है कि कुल कार्यवाही अंतर और बाहर की सुरत और मन की धार के वसीले से होती है, और जिस तरह की आदमी सच्ची तवज्जह करें, उसी तरफ को धार उठ कर जारी होती है और जैसी कार्यवाही होवे करती है। फिर जो कोई परमार्थी अभ्यास के वक्त तवज्जह अपनी अंतर में ऊपर की तरफ, जैसे कि संतों ने फरमाया है,

 स्वरूप में या शब्द में या किसी मुकाम पर जमावेगा, तो जरूर उस तरफ और सुरत और दृष्टि की धार उठकर जारी होगी। और जब तक कि दूसरा ख्याल पैदा न होगा यानी दूसरी धार जारी नहीं होगी, तब तक उस धार का मुख ऊँचे की तरफ अंतर में रहेगा और इस खिँचाव और तनाव का जरूर थोड़ा बहुत रस आवेगा, क्योंकि ऊँचा देश बनिस्बत उस मुकाम के, जहाँ के जाग्रत में सुरत की बैठक है, ज्यादा रसीला और आनंद का स्थान है ।

जैसा कि इस कड़ी में कहा है:-

उलट घट झाँको गुरु प्यारी। नैन दोऊ तानो को न्यारी।।

 आदमी की तवज्जह के साथ जिस तरफ भी होवे सुरत और मन और नजर की धार उसी तरफ को रवाँ होती है।

 क्रमशः 🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**2)


गुरु प्यारे चरन मेरे प्रान अधार।।टेक।।

 क्या महिमा चरनन की गाऊँ।

जीव पकड उन उतरें पार।-

(राधास्वामी दया चली अब घट में। सुन सुन धुन स्रुत हो गई सार।।)

 (प्रेमबानी-3-शब्द-4-पृ.सं.13,14)                    

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