सुवाक्य चिंतन:
1.हृदय की सुनो। हृदय किसी भी परिस्थिति के पार जा सकता है। हृदय ऊर्जा का वास्तविक स्त्रोत है। इसलिए हृदय की सुनना। हृदय पर श्रद्धा रखना, और हृदय की ही सुनना, और हृदय की सुनकर ही आगे बढ़ना।"
-यह आध्यात्मिक हृदय है।भौतिक हृदय यंत्र मात्र है और अनेक समस्याएं खडी करनेवाला है।आध्यात्मिक हृदय प्रज्ञापूर्ण है,करुणामय भी और श्वास प्रक्रिया का वास्तविक स्रोत भी।आधारभूत आध्यात्मिक हृदय से श्वास लेते रहें यह हमारी संपूर्ण संरचना में संतुलन ले आयेगा।
2.अगर तुम्हारा पात्र भीतर से बिल्कुल शुद्ध है,निर्मल है,निर्दोष है तो जहर भी तुम्हारे पात्र में जाकर निर्मल और निर्दोष हो जायेगा।"
-गीता का कथन है-अत्यंत विकारयुक्त चित्त वाला भी यदि अनन्य भाव से ईश्वर को भजता है,यथार्थ निश्चय वाला है अर्थात् उसने भली प्रकार निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है,वह साधु ही मानने योग्य है।"
-आदमी ने व्यक्तिगत रुप से अपने भीतर सही चीज को जान रखा है तो वह निर्दोष ही है।सारे दोष उसमें पूर्व संस्कारजन्य हैं,स्वयं उसके द्वारा समर्थित नहीं।
3.Self-control is strength.Right thought is mastery.Calmness is power."
-आत्मनियंत्रण, आत्मशांति और सही समझ में बडी शक्ति है।यह आधारभूत शक्ति है।इसे छोडकर अहंकार शक्ति का प्रदर्शन करता है जिसके लिए उसे बाहरी साधनों का सहारा लेना पडता है पर असली सहारा तो भीतर ही है।
4.Be lamps unto yourselves;be your own confidence.Hold trouth within yourselves."
-मैं मैं ,मेरा मेरा करके न सोचें,सीधा स्वयं को अनुभव करें।स्वयं अनुभव हो ही रहा है।इसमें बडी ताकत है।यह तो मैं मैं मेरा मेरा करके सोचने से इस पर पर्दा आ जाता है।अतः मैं मेरा की भाषा में सोचने के प्रलोभन से मुक्त ही रहें।
5.We all need love.It is as natural as air."
-अन्न जल हवा में प्राण टिके हैं अतः मनुष्य इसके लिए प्रयत्न करता है परंतु प्रेम और आत्मीयता भी इतने ही जरूरी हैं फिर भी आदमी इसके लिए प्रयत्न नहीं करता, सिर्फ दूसरों से इसकी आशा-अपेक्षा ही करता रहता है जबकि दूसरों से अनुकूलता चाहिए तो उन्हें अपने अनुकूल बनाते भी आना चाहिए।स्वतः कोई कैसे अनुकूल बनेगा?
6.This life is a hard fact;work your way through it boldly,though it may be adamantine;no matter, the soul is stronger."
-हकीकत में हमारी आंतरिक दुर्बलताएँ ही बाह्य कठिनता का आभास कराती हैं अतः भीतर दृढता चाहिए।तभी आदमी खुद का मित्र है अन्यथा खुद का शत्रु।कोई दूसरा शत्रु नहीं है।
7.Always be a good person but don't waste time to prove it."
-जो अपने को भला मानता है और सफाई भी देता है वह अहंकार से ग्रस्त है।सचमुच भला है अगर कोई तो वह सफाई नहीं देगा,न सफाई देनी चाहिए।भला होना और मूर्ख होना अलग बातें हैं।भलाई में सात्विक बुद्धि सक्रिय होती है जबकि मूर्खता जड है,तमोगुणी।
8.Respect is like a mirror.The more you show it to other people, the more it will reflect back on you."
प्रायः आदमी दर्पण में अहंकारपूर्वक ही देखता है अपने आपको,पर यदि हृदय में सम्मान का अनुभव करते हुए देखने लगे तो अहंकार गलने लगता है।तब निरहंकार के सामने निरहंकार खडा है,न कि अहंकार के सामने अहंकार।और यह जगत हमारा प्रतिबिंब ही तो है।जैसा बिंब, वैसा प्रतिबिंब।
9.धर्म का उद्देश्य आत्मनियंत्रण है,आलोचक बनाना नहीं।"
आलोचक बहिर्मुखी है।अंतर्मुखी मनुष्य संयत होता है।इसका अर्थ यह नहीं कि वह युद्ध नहीं कर सकता।कर सकता है लेकिन वह रागद्वेष रहित और प्रज्ञापूर्ण होता है यथा आवश्यकता।
10.You cannot treat people like garbage and worship God at the same time."
-सभी लोग खुद को विशिष्ट तथा दूसरों को कूडा करकट मानकर चलेंगे तो उनके व्यवहार में बडी व्यग्रता, बडी आक्रामकता होगी।वे अपना बचाव करेंगे।यदि वे शांत,सहज,धीमे तथा आत्मीयता से पूर्ण होंगे तो वातावरण कुछ और होगा।कल्पना करें उस घर या आफिस के वातावरण की जिसमें सब लोग एक दूसरे से झगडते हों या एक दूसरे के प्रति असीम सम्मान से भरे हों।
11.जंगल जंगल ढूंढ रहा है मृग अपनी कस्तूरी को।कितना मुश्किल है तय कर पाना खुद से खुद की दूरी को।"
-हमारे भीतर आत्मा-परमात्मा हमसे कितनी दूरी पर स्थित है?चलो हम ही कितना हमारे पास हैं?हम हम ही से बहुत दूर हैं।यह चित्त भ्रम ही है फिर भी स्व के पास आने और स्व में स्थित होने के लिये साधना करनी पडती है।असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।
12.अंतर्मुखी मन ,आत्मा बन जाता है।"
दोनों विपरीत तो हैं लेकिन मन के आत्मा होने के सत्य का पता तभी चलता है जब मन सचमुच अंतर्मुखी हो जाता।हम मन हैं,क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि क्या होगा जब हम ही अंतर्मुखी होंगे,हमारी मानसिकता सर्वथा अंतर्मुखी होगी?तब वह मूल स्रोत से जुडेगी जो ज्ञान का भंडार है।
13.गहराई में है शांति, समुद्र की हो या मन की।"
और कुछ नहीं तो "गहराई" शब्द के अर्थ का अनुभव करने में ही लगे रहें।क्या फर्क पडता है यदि "गहराई" एक शब्द मात्र है?क्या किसीके हमारे अनुकूल या प्रतिकूल शब्द मात्र बोलने पर भी हम पर उसका बडा असर नहीं होता?
14.खुद पर विजय प्राप्त करें-दूसरों के सामने कुछ भी साबित करने से पहले।"
भीतर अहंकार हर वक्त अपने आपको साबित करने में लगा रहता है इसीसे बाहर बहुत जल्दी उद्धत होकर आक्रामकता से पेश आता है।वह पहले खुद ही अपने भीतर अपने आपको साबित करले तो फिर बाहर फर्क पड जाता है।उद्धतता की जगह आत्मविश्वास बना रहता है।
15.दूसरों पर जीत हासिल करने से पहले यह जरूरी है कि हम खुद पर जीत हासिल करें।"
-खुद को जीते बगैर दूसरों को नहीं जीत सकते।दूसरों को प्रेम,स्नेह,आत्मीयता से ही जीता जा सकता है किंतु पहले स्वयं का प्रेमपूर्ण, आत्मीयतापूर्ण होना अनिवार्य है।खुद को जीतना इसी संदर्भ में है।इस बात को न समझना ही "चिंताजनक" है।और चिंताजनक मन की कल्पना मात्र है।
राधास्वामी दयाल की दया राधास्वामी सहाय।
राधास्वामी
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