प्रस्तुति - स्वामी शरण /आत्म स्वरूप /संत शरण /मेहर स्वरूप स्वरूप /
जो सुखदुख दोनों से मुक्त है वह आनंदित है।'
गीता का कथन है-प्रकृति में स्थित पुरुष सुखदुखों का भोक्ता है।'
हम हैं पुरुष अर्थात चेतनस्वरुप आत्मा।शरीर, मनबुद्धिचित्त अहंकार प्रकृति है जिसमें हम स्थित हैं तो देह,अंत:करण के सुखदुख अनुभव होते हैं।हम अपने स्वरुप में स्थित हैं तो सुखदुख नहीं है अपितु आनंद है।आनंद हमसे अभिन्न है जैसे शक्कर से उसकी मिठास अभिन्न है।
फिर समस्या क्या है?कोई समस्या नहीं।है अगर तो यही कि हम प्रकृति से अभिन्न होकर बैठे हैं।इसमें शरीर है,मन है,बुद्धि है,चित्त है,अहंकार है और वही हमारा स्वरुप बन गया है जो है नहीं।
हम ही प्रकृति हैं ऐसा हमें लगता है तो सुखदुख का अनुभव होना अनिवार्य है।हमें लगता है सुख न होगा तो कैसे चलेगा?दुख से मुक्ति नहीं मिलती तो यह ठीक नहीं।हमें पता ही नहीं कि जिस सुखदुख को लेकर हम इतने गंभीर हो रहे हैं वे हैं भी या नहीं?कोई आदमी दुखी है तो इसे स्वाभाविक माना जाता है।उसके प्रति सहानुभूति रखी जाती है या निष्ठुरता भी दर्शायी जा सकती है।दुख कभी भयंकर रुप भी ले लेता है।वह भी मान्य होता है।लेकिन इसका पता नहीं चलता कि तथाकथित दुख की भयंकरता भी तथाकथित ही है,वास्तविक है ही नहीं।इन सबके पीछे प्रकृति के शरीर,मनबुद्धिचित्त अहंकार का हाथ है जो हम हैं ही नहीं।
जब तक हमें लगता है हम प्रकृति हैं सुखदुख के अनुभव होंगे।दोनों क्षणभंगुर होंगे।कभी सुख होगा,कभी दुख।
हमारी कोशिश सदा सुख पाने की रहेगी लेकिन वह अस्थायी ही हो सकता है।दुख हमेशा पीछे होता है।इसलिए कोशिश अस्थायी सुख की ही हो सकती है।जब जब वह मिल जाय उसमें संतोष मान लिया जाता है।
यह संतोष तभी तक है जब तक कोई नयी समस्या उत्पन्न न हो।स्थायी सुख की चाह रहती है फिर भी संदेह बना रहता है।कारण साफ है।प्रकृति के राज में स्थायी सुख की कोई व्यवस्था नहीं है।यहां सब द्वंद्वात्मक है।यहां यह भी होगा,वह भी होगा।हम भले चाहते रहें कि सिक्के का एक ही पहलू रहे,दूसरा न हो मगर दूसरा जा कहां सकता है?उसका साथ रहना निश्चित ही है।हां।अगर दोनों पहलू न चाहें तो सिक्के की जरूरत नहीं फिर उसे छोडा जा सकता है।
सुखदुख दोनों से मुक्ति का ही लक्ष्य हो तो फिर ठीक है।आनंद का आविर्भाव तभी है।
इस विषय में भी चिंतन किया जा सकता है कि सुख अवास्तविक है और दुख वास्तविक है।सुख कल्पना है,दुख यथार्थ।आदमी दुख के यथार्थ से बचना चाहता है तथा सुख की कल्पना में रहना चाहता है।उसका यह पलायन आत्मपलायन है।
उसके चित्त की अहंवृत्ति तथा दुखवृत्ति दोनों मिले रहते हैं।कारण वही है,बाहर कोई कारण नहीं।बाहर जैसा कुछ होता भी नहीं।यह तो अंतर्मुखता का अभाव है इसलिए सत्य अज्ञात रहता है।व्यक्ति अंतर्मुखी होकर अपने भीतर अपने ब्रह्मांड मे रम जाय तो सारे कार्य-कारण स्पष्ट अपने भीतर ही दिखाई देंगे।तथाकथित बाहरी का तथाकथित दुख रहेगा ही नहीं।सारा खेल भीतर है।भीतर का संसार विशाल है।उसमें प्रवेश चाहिए इतना ही।
भीतर अहंवृत्ति और दुखवृत्ति मिले रहते हैं अतः दुखवृत्ति से छूटना संभव नहीं होता।कोई विकल्प नहीं सिवाय इसके कि दुखवृत्ति के साथ,उसके अनुभव के साथ बने रहा जाय।सुख चाहने का मतलब दुखवृत्ति के बंधन से छूटने की कोशिश करना जो संभव नहीं।ऐसी स्थिति में उपाय यही है कि सुख की चाह छोडकर दुख के अनुभव के साथ रहा जाय।
फिर यह भी सोचने की बात है कि हमें सुख अस्थायी चाहिए या स्थायी?प्रकृति में जो सुख है वह अस्थायी है या वह सुख का भ्रम है।आशंका दुख की बनी रहती है तो अच्छा हो इसकी जड को ही काट दिया जाय।शंका से बेहतर है साक्षात्कार।किसी व्यक्ति, घटना, परिस्थिति की आशंका रखने से ज्यादा अच्छा होगा स्वयं प्रस्तुत हो जाना।आशंका की जरूरत न रहेगी।स्पष्टीकरण हमेशा बेहतर है परंतु इसके लिए जरूरी है,स्पष्ट समझ,स्वयं प्रस्तुत रहने का साहस-हिम्मत-क्षमता।
हम जो बात कर रहे हैं उसमें तो अपने दुखानुभव के साथ रहने की समझपूर्ण क्षमता की बात है।समझ से क्षमता आ जाती है वर्ना आदमी बौद्धिक प्रयास कर सकता है।क्षमता होती नहीं।समझ साफ हो तो अपने दुखानुभव के साथ रहना संभव है।
भागना नहीं है क्योंकि अपना ही अनुभव है।दुखानुभव घंटा भर रहे तो हम दो घंटे उसके साथ रहने के लिए तैयार हों,एक दिन रहे तो दो दिन,पांच,दस दिन,दस वर्ष साथ रहने के लिए प्रस्तुत हों।
सिवाय हमारे और किसी भी वृत्ति की आयु हमसे ज्यादा नहीं।सात्विक, राजसी,तामसी कोई भी वृत्ति हो हम टिके रहें तो हर वृत्ति आती है और खुद चली जाती है।हमें कुछ करना भी नहीं पडता सिवाय डटे रहने के।
दुख होता है तो यह दुख की वृत्ति है।अहंवृत्ति इससे अलग है।हम वही हैं।हालांकि वह भी प्रकृति है,हमारा मूल स्वरुप नहीं फिर भी प्रकृति में से बाहर निकलने के लिए उसकी सहायता लेना ठीक है।चित्त मे जडता और चेतना दोनों हैं।अहंवृत्ति मध्य में है।केवल अहंवृत्ति के रुप में दृढ रहें तो बाकी सभी वृत्तियाँ आ आकर चली जाती हैं और आत्मा से जुडने का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।इसकी जगह हम आत्मा(सेल्फ)को छोडकर आनेजानेवाली वृत्तियों से जुडे रहते हैं।पलायनकर्ता बने रहते हैं क्योंकि राजसी,तामसी वृत्तियों का ही आवागमन होता रहता है ज्यादातर।
हम उनके साथ नहीं रहना चाहते तो उनसे दूर भागते हैं।
कहां?तो बाहर।हम उस वृत्ति के साथ रहना ही नहीं चाहते और भयंकर दुख,शोक,अवसाद पता नहीं क्या क्या कहते हैं!
एक बात का ध्यान रखना चाहिए कि जिसका भी यह खेल है उसके मूल में दुखसुख की वैसी सच्चाई नहीं है जैसी हम मानते हैं।
हमें चाहे जितना भी दुख हो हम सावधानी से उसके साथ बने रहें तो वह विलीन हो जायेगा।साथ रह सकें तो वह अस्थायी है,पलायन करें तो वह स्थायी है।हकीकत में वह भ्रममात्र है।प्रकृति के धरातल पर वह भले ही सच मालूम हो मगर जो आध्यात्मिक सत्य को जानता है उसके लिए वह भ्रममात्र ही है।
टिके रहने से वह स्वतः विलुप्त हो जाता हो तो वह भ्रम नहीं तो और क्या है?
लेकिन हम हमारे सच्चे स्वरुप को जानते ही कहां हैं?हम तो प्रकृति जन्य देह,अंत:करण से तादात्म्य स्थापित करके बैठे हैं जिससे सुखदुख वास्तविक प्रतीत हो रहे हैं ।
सारी साधनाएं इस तादात्म्य को समाप्त कर अपने मूल स्वरुप में आने के लिए हैं।
ईश्वरीय शक्ति ने अपने इस खेल या आयोजन में मुक्ति के साधनों का भी विस्तार किया है।इसलिए जिसके जो अनुकूल पडे भक्ति, ज्ञान,कर्म या और कोई योग उसका अवलंबन करके निरंतर प्रयत्नशील बने रहना चाहिए।अगर कोई कहे कि उसका मार्ग अधिक श्रेष्ठ है तो उससे विवाद में पडे बिना अपने अनुकूल मार्ग में बने रहना चाहिए।कभी कभी विभिन्न मार्गों के साधक आपस में उलझ जाते हैं यह ठीक नहीं।इससे अपने मार्ग से ध्यान हट जाता है तथा जो ऊर्जा, जो शक्ति अपने तरह की साधना में लगनी चाहिए उसमें कमी आ जाती है।अपनी अपनी साधना में निष्ठापूर्वक लगे रहने से तादात्म्य टूट जाता है।
स्वरुप स्थिति तादात्म्य रहित है।इसके बिना सतत अस्थिरता है।हम अपने भीतर अत्यंत पीछे जा सकते हैं इसकी भावना करके।यह निश्चय करलें कि अपने भीतर अत्यंत पीछे जाकर ही बोलना, देखना, सुनना, जानना, पहचानना।तब पहचानने को कुछ भी न मिलेगा।साफ मालूम पडेगा सब भीतर से है।शरीर भी भीतर से आ रहा है जिससे आगे बढकर हम एकरूप होते हैं और आगे अनंत में गतिशील हो जाते हैं।
अपने भीतर अत्यंत पीछे जा सकें तो स्वरुप स्थिति होगी,उसकी बडी भव्यता है,गरिमा है।सारे तादात्म्य टूट जाते हैं बल्कि तादात्म्य करने के लिए कूछ भी नहीं रहता क्योंकि जो भीतर से सामने की ओर प्रक्षेपित होता है उसी से हम तादात्म्य करते हैं।हम भीतर अत्यंत पीछे जा सकें(मूल स्रोत की ओर)तो प्रक्षेपण बंद हो जाते हैं,सामने कोई नहीं रहता व्यक्तित्व दृश्य तो ठीक,शरीर भी नहीं दिखता।देहरहित स्वरुप स्थिति स्वतः अभिव्यक्त होने लगती है।
सब कुछ स्रोत में से है।उसमें स्थिति चाहिए।उसके लिए स्व में रहने का अभ्यास परम सहयोगी है।अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।अपने भीतर गहरे जायें,अपने भीतर अत्यंत पीछे जायें।आप आराम से,शांति से जी सकेंगे ,जो आपके साथ हैं वे भी।आपके व्यवहार में गहरा संतुलन आ जायेगा।आप चाहकर भी आतुर,उग्र,बेचैन नहीं हो पायेंगे।
गीता की भाषा में यह शरणागति है,परम स्थिति, परम शांति जिसका परिणाम है।तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
हे भारत!पीछे लौटो उस परम गहराई की ओर।
सामने कुछ नहीं, सब पीछे है।
No comments:
Post a Comment