प्रस्तुति - राजेन्द्र प्रसाद सिन्हा /
जनार्दन प्रसाद / अनिल
"The mind with all its activities has come between you and your self.Get rid of that."
स्वयं का साक्षात्कार कैसे हो?
स्वयं क्या दो हैं जो एक स्वयं दूसरे स्वयं का साक्षात्कार करेगा?
स्वयं एक ही है अखंड।आत्मा।यही साक्षात्कार है।मन के कारण यह दो में विभाजित प्रतीत हो रहा है।एक द्रष्टा बन जाता है,दूसरा दृश्य।इस द्वैत में अद्वैत स्वरुप पर पर्दा पड जाता है।
केवल "स्वयं" होकर रहे तब तो कुछ भी नहीं करना है।द्रष्टा- दृश्य की तरह रहे(जो मन है)तो स्वयं अलग थलग पड जाता है और उसका साक्षात्कार करने की बात उठती है।
केवल स्वयं की तरह रहें जो हैं ही तो स्वयं,द्रष्टा-दृश्य से परे है।उस भेद की परवाह करने की जरूरत नहीं।उसका होना,न होना बराबर है।
मन को महत्व दिया जाय तो फिर मुश्किल है।
मन जो द्रष्टा-दृश्य में विभाजित होता है उसमें शब्दों की बडी भूमिका है।शब्दों के क्रियाकलाप से हमारे और स्वयं के बीच में दूरी आ जाती है।शब्द के साथ विचार होते ही हैं।मैं मेरा,वह उसका के विचार इससे न स्वयं से मिलना संभव होता है,न स्वयं के रुप में रहना।एक उदाहरण था कि दर्पण में स्वयं को दूर से देखा जाय तो प्रतिबिंब दिखाई देता है।मुख को दर्पण से ही लगा दिया जाय तो प्रतिबिंब दिखाई नहीं देता।प्रतिबिंब के लिए दूरी चाहिए।
इसी तरह चित्त,आत्मा से(स्वयं से)दूर जाता है इसलिए स्वयं अलग,दूर मालूम होता है।चित्त, स्वयं से जुड जाय तो दूरी मिट जाती है।स्वयं रह जाता है।चित्त बाहर प्रक्षेपित दृश्यों का पीछा करता है जितना वह उनके पास जाता है उतनी स्वयं से दूरी बढती जाती है।इसलिए साक्षात्कार की बात पैदा होती है।योग की आवश्यकता को बल मिलता है।विपश्यना साधना, चित्त को शरीर से जोड देती है।चित्त,देह संवेदनाओं के अनुसंधान में व्यस्त रहने से देह से दूर नहीं जा पाता जिसके उत्तम परिणाम आते हैं।जितना स्वयं के पास आ सकें,रह सकें उतना अच्छा(अहंकार की दृष्टि से नहीं, आत्मा की-मूल स्रोत की दृष्टि से।)।
विभाजन मिटाने का एक उपाय है मन में जो भी आता है उसका एक ही नाम रखा जाय वह है-"स्वयं"।और यही सच भी है।स्वयं ही सब कुछ है द्रष्टा भी स्वयं,दृश्य भी स्वयं।स्वज्ञान(सेल्फनोलेज)की राह इससे बहुत आसान होती है।यह बहुत प्रभावी है।आपके मन में जो भी व्यक्ति आये उसे "स्वयं" कहकर पुकारें।
स्वयं है भी।
मानसिक दृश्य क्या हैं?
भ्रम ही तो।यह माया है,इंद्रजाल है।मानसिक दृश्य हैं कुछ भी नहीं मगर वे कुछ होने का भ्रम पैदा करते हैं।
यह भ्रम इतना शक्तिशाली है कि आदमी हर वक्त इनके कारण क्रोधक्षोभ, लोभ,भयचिंता, शंका में घिरा रहता है।सुबह सुबह कुछ ऐसा याद आगया और सारा दिन उसकी स्मृति से प्रभावित।
इन स्मृति दृश्यों को,
मानसिक प्रक्षेपणों को अवश्य समझना चाहिए।इनसे द्रष्टा(अहंकार)हमेशा प्रतिस्पर्धा में रहता है।
कोई कुछ नहीं करता।खुद ही अकेले में बैठा बैठा द्वंद्व में बना रहता है।यही कारण है जो अहंकार के विसर्जित होने पर जोर पडता है।"मै" मिटे तो दृश्य मिटे।न "मैं" मिटे,न दृश्य बंधन समाप्त हो।"मैं" मिट भी जाय अगर स्वयं को जानें मगर स्वयं को कौन जानता है सभी लोग "मैं" को "मैं शरीर हूँ" के रुप में जानते हैं।इसलिए तो मृत्यु से भय लगता है।स्वयं को जाने,उस अनुभव में स्थित हो तो मैं रुपी मन की,मैं रुपी माया की क्या फिक्र?हम ही मैं रुप में मिटना नहीं चाहते।मैं रुप की रक्षा करना चाहते हैं इसलिए स्व रुप में स्थिति नहीं होती।
स्वरुप में स्थिति चाहिए तो मैं को स्वयं के रुप में अनुभव करना होगा।मन को स्वयं में बदल देना होगा, मन को स्वयं की तरह देखना होगा।उसका द्रष्टा रुप भी स्वयं तथा दृश्य रुप भी स्वयं।स्वयं के अलावा दृश्य को दूसरा कोई भी नाम दिया तो हमारी स्थिति दृश्य में अर्थात अ-स्वयं में होगी(नोनसेल्फ में)उसमें जो हम नहीं है।हमारा चित्त हमेशा दृश्य के अधीन रहता है।हम हर वक्त स्वयं की जगह अ-स्वयं की तरह ही रहते हैं।इसके लिये कहा जाता है कि "द्रष्टा को दृश्य का बंधन है।"
अब हमने दृश्य को "स्वयं" कहना शुरू किया तो कहां है दृश्य?अब तो एक नहीं अनंत दृश्य हों तब भी स्वयं ही है।
यही आत्मा का सत्य है।यह अखंड है,अनादि, अनंत।
यह है और यह हर एक के अनुभव में आ रहा है।
इस अनुभव को मानसिक दृश्य भ्रम से मुक्त रखा जा सके तो यह सत्य में स्वतः सिद्ध स्थिति है बिना अंदरबाहर के भेद के।
अंदरबाहर का भेद मैं शरीर हूं इस मानसिकता के कारण पैदा होता है।
मैं,स्वयं से अभिन्न हूं या स्वयं ही हूं इस अनुभव स्थिति में रहा जा सके तो मैं शरीर हूं-यह मानसिकता तिरोहित हो जाती है।सत्य अभिव्यक्त रहता है।
मैं शरीर हूं-मान्यता से अदृश्य पिंजरा निर्मित होता है।पिंजरे कैसे भी हों लोहे,पीतल,सोने के।यह मान्यता सबको बंधन में डाल देती है।आवश्यकता है इसके झूठ को समझने की।"मैं हूँ" यह अनुभव सभी को है।इसमें दृढता से रहा जाय बाकी सब कल्पनाओं को फेंक दिया जाय तो चेतना उस अदृश्य और कल्पित पिंजरे से मुक्त हो सकती है जो असंख्य असहनीय यातनाओं का कारण बन रहा था।
यहाँ सब तरह की चीजें हैं फर्क इस बात का पडता है कि हम किसे अधिक महत्व देते हैं,किस पर अपना अमूल्य ध्यान केंद्रित करते हैं।
"Life is much better when we focus on what really matters."
जो सचमुच महत्वपूर्ण है उसे महत्व देना सीख जायं तो यही कष्टप्रद जीवन कुछ और हो जाय।कष्ट का नाम न रहे।
हम मन को नहीं जानते।हम मन का अतिक्रमण करके बाहर देखते हैं और हमेशा प्रतिस्पर्धा, प्रतियोगिता के विचारों से भरे रहते हैं।ऐसे में सचमुच महत्वपूर्ण क्या है इसका पता भी नहीं चलता।
यही नहीं प्रतिस्पर्धा, प्रतियोगिता के साथ खुद को बचाने की जद्दोजहद भी शुरू हो जाती है।एक तरह का भय होता है,आक्रामकता होती है खुद को बचाने के लिए।
किसे बचाना है?
यही तो मन है या अहंकार है।
अहंकार गले,विसर्जित हो इसका ध्यान रखा जाय तो मौलिक परिवर्तन होता है।फिर कोई प्रतिस्पर्धा, कोई भय नहीं होते खुद को बचाने के लिए अपितु प्रेम प्रकट होता है।यह प्रेम पहले से मौजूद होता है किंतु अहंकार का पर्दा पडा होने से उसका पता नहीं चलता।
हमारी स्वयं से कोई दूरी नहीं है।कल्पित दूरी का कारण है-अहम्मन्यता।यह झूठी अहम्मन्यता मिटे तो फिर किससे,किसकी,कैसी दूरी?
फिर स्वयं ही है,हृदय ही है और वह परम सत्य है
अद्वैत स्वरुप-आत्मस्वरुप।
हर चीज देखें तब भी वह जुडी हुई ही मिलेगी,टूटी हुई नहीं।
"There is no feeling,no thought,no action which does not stand on the foundation of Self."
एक ध्यान चर्चा की थी-"भीतर से उठने वाला हर एक विचार उससे खुद से अभिज्ञ है(अवेयर है)।"
प्रत्येक विचार।आमने सामने कोई नहीं।केवल विचारसमूह(bundle of thoughts)क्रमश: आगंतुक विचार रुप में।
मैं विचार को उसका खुद का भान,द्रष्टा विचार को उसका खुद का भान,शून्य विचार को भी उसका खुद का भान।इस प्रक्रिया में सारे विचार मूल स्व में विलीन हो जाते हैं।कुछ बचता नहीं, बच सकता नहीं।वह दशा परम मौन की,अनिर्वचनीय दशा होती है।
खुद तो व्यवहार दशा में भी महत्व रखता है जैसे मैं आरहा हूं की जगह 'खुद आ रहा हूं'।मैं बोल रहा हूं की जगह 'खुद बोल रहा हूं'।जैसा अक्सर फोन में बोलते हैं।सुखदुख से भी जोड सकते हैं जैसे मैं बडा परेशान हूं,हैरान हूं की जगह 'खुद बडा परेशान हूँ,हैरान हूं।'
इसे नकारात्मक से जोडकर देखें-मैं भयभीत हूं या क्रोधित हूं की जगह खुद भयभीत हूं या खुद क्रोधित हूं।
मैं झूठ बोलता हूं की जगह खुद झूठ बोलता हूँ-
तो लगेगा नहीं यह ठीक नहीं।खुद को जोडने से चीजें स्वतः सकारात्मक होने लगती हैं।
खुद,स्वयं,सेल्फ मूल है।
"There is no moment when the Self is not."
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