प्रस्तुति - आत्म स्वरूप
जीवों की तीन किस्में हैं उत्तम, मध्यम और निकृष्ट और इसी तरह बुद्धी और समझ भी तीन किस्म की है, एक तेलिया , दूसरी मोतिया , तीसरी नमदा ( मोटा ऊनी बिछौना ) पहिली यानी तेलिया का खवास यह है कि जैसे तेल की एक दो बूंदें पानी में डालें तो वह फैल कर तमाम पानी को घेर लेती हैं । इसी तरह उत्तम अधिकारी बचन सुनकर , उनका आप ही आप बिस्तार करके समझता है , और अपने फायदे की बात को छाँट कर ग्रहन करता है । ( २ ) दूसरी मोतिया बुद्धी कि जैसे मोती में जिस कदर सूराख किया जावे , वह उस क़दर कायम रहता है । यानी मध्यम अधिकारी जिस कदर बचन सुनता है उनको वैसा ही अपने मतलब के मुवाफ़िक छॉट कर याद कर लेता है , लेकिन बिस्तार नहीं कर सक्ता ॥
(३) तीसरी नमदा बुद्धी , जैसे नमदे में सूये से सूराख़ किया गया , तो सूराख़ होता हुआ तो नज़र आया पर फ़ौरन ही छिप गया । ऐसे ही निकृष्ट अधिकारी बचन सुनते और समझते मालूम होते हैं , पर उनको फ़ौरन ही भूल जाते हैं ।
२७ - उत्तम अधिकारी को थोड़े दिन के सतसंग से बहुत फायदा हासिल हो सक्ता है । क्योंकि वह दो मूल बात को समझ कर उनका विस्तार और अपनी सम्हाल थोड़ी बहुत हर सूरत और हर हालत में आप ही अपनी निर्मल बुद्धी से कर सक्ता है । और वह दो मूल बात यह हैं ॥
( १ ) सुरत की बैठक जाग्रत के समय नेत्रों में है और यहाँ से धार जिस कदर अंतर में उँचे की तरफ को शब्द और स्वरूप के आसरे खिंचेगी यानी पुतली उलटाई जावेगी उसी कदर देह और संसार से बंधन ढीला होता जावेगा यानी इधर से बेखबरी और उपर की तरफ होशियारी के साथ , रस और आनन्द मिलता जावेगा । इस काम की जरूरी और मुफीद समझकर जिस कदर बन पड़ेगा उत्तम अधिकारी हमेशा जारी रक्खेगा, बल्कि आहिस्ता आहिस्ता उसमें तरक्की करेगा ।
(२) मन और इन्द्रियों की घारें बाहरमुख जारी हो रही है , और इच्छा यानी ख्वाहिश के साथ यह धारें पैदा होती हैं और पुतली के उलटाने यानी मन और सुरत की धार को , अन्दर में उपर की तरफ चढ़ाने में , वे तरंगों की धार बिघन कारक हैं । इस वास्ते सिर्फ जरूरी और मुनासिब तरंगें उठानी और इन्द्रियों की धारों को जरूरी कामों के वक्त जारी रखना , और फजूल और गैर जरूरी और नामुनासिब ख्यालों और कामों की तरंगें अन्तर और बाहर रोकना , खास कर अभ्यास के वक्त , और आम तौर पर हर वक्त जरूर चाहिये ।
इस बात को समझकर उत्तम अधिकारी , अपनी सम्हाल हर वक्त मुनासिब तौर पर रख सक्ता है । जो मुवाफिक पुराने स्वभाव और आदत के भूल और चूक हो जावे तो कुछ मुजायका नहीं , फिर होशियार होकर सम्हाल करनी चाहिये । इसी तरह कोई अर्से की कोशिश के बाद मन और इन्द्रियाँ दुरुस्ती के साथ बर्तने लगेंगी ।
२८ - मध्यम अधिकारी को सतसंग कुछ ज़्यादा अर्से तक करना चाहिये , तब वह बचनों को सुन कर और समझ कर और थोड़ा बहुत अंतरी अभ्यास करके और भी उत्तम और मध्यम अधिकारियों को जो सतसंग अर्सा से कर रहे हैं , या सतसंग में आते जाते रहते हैं , देखकर काबिल इसके हो जावेगा , कि दूर रहकर और राधास्वामी दयाल की दया का बल लेकर अपनी सम्हाल थोड़ी बहुत कर सके । और जिस बात में कोई दिक्कत या बिघन या मुशकिल पेश आवे , तो चिट्ठी भेज कर सतगुरू से हिदायत मुनासिब वक्तन् फवक्तन् हासिल करता रहे ॥
२९- निकृष्ट अधिकारी को बहुत अर्सा तक सतसंग करने और उत्तम और मध्यम अधिकारियों की हालत देखने से कुछ फायदा होगा , जो वह थोड़ी होशियारी और शौक के साथ इस काम को करेगा । और दूरी में उत्तम या मध्यम अधिकारी के सतसंग और मदद से , उसका भी थोड़ा बहुत निरबाह हो जावेगा , और रफ्ता २ मध्यम अधिकारी के दरजे पर आ जावेगा ।
३० - जो लोग कि सच्चा शौक परमार्थ का नहीं रखते पर सच्चे शौकीनों के साथ किसी लपेट से , संतों के सतसंग में आ गये हैं , तो उनको भी कुछ थोड़ा फायदा होगा लेकिन जब तक कि वे चेत कर होशियारी के साथ सतसंग और अंतर अभ्यास नहीं करेंगे , तब तक उनकी हालत नहीं बदलेगी । इन लोगों को उत्तम या मध्यम अधिकारियों का संग काफी होगा , क्योंकि सतगुरु के सतसंग की ताक़त और लियाकत उन में कम होगी ॥ ३१ - खुलासा यह है कि जब तक जीव का ज़बर झुकाव संसार की तरफ और मन में बासना भोग और बिलास और उसकी तरक्की की रहेगी तब तक वह संतों के सतसंग और उनकी जुगती के अभ्यास से गहरा फायदा नहीं उठा सक्ता कि जिससे उसकी हालत जल्द बदले और परमार्थ का रस बराबर अंतर में पावे ॥
३२ - जो कोई सच्चा दर्दी परमार्थी है , वह राधास्वामी मत की पोथियों को गौर से पढ़कर , बहुत फायदा उठा सक्ता है । और चिट्ठी के वसीले से उपदेश हासिल करके अभ्यास में राधास्वामी दयाल की दया से , भजन और ध्यान का भी रस ले सक्ता है । और अपना हाल वक्तन फवक्तन सतगुरु या उत्तम अधिकरी को लिखकर , और हिदयत मुनासिब लेकर अभ्यास में तरक्की भी कर सक्ता है । पर कितनी ही बाते राधास्वामी मत और उसके अभ्यास की बाबत ऐसी है कि सिर्फ जबानी समझाई जा सक्ती हैं और लिखने में किसी न किसी किसम की गलती या घोखा हो जाने का खौफ है इस वास्ते ऐसे परमार्थी को भी जरूरी और लाजिमी है , कि अगर ज्यादा न हो सके , तो एक मर्तबा जरूर सतसंग में हाजिर होकर और चन्द रोज वहाँ ठहरकर जो कुछ कि शुभा और शक या किसी बात में समझ का फेर होवे , उसको दूर करावे । और जो बातें कि जबानी समझाई जा सकती हैं उनको बखूबी समझ लेवे , ताकि उसके अभ्यास की तरक्की में दूरी की वजह से ख़लल न पड़े । और कुल्ल मालिक राधास्वामी दयाल और सतगुरु और सुरत शब्दमारग की प्रीत और प्रतीत मजबूत हो जावे ॥
३३ - और जो ऐसे परमार्थी का किसी सूरत से सतसंग में आना न बन सके , तो जो वह सतगुरु का हुक्म लेकर किसी उत्तम अधिकारी परमार्थी से ( जिसने कुछ अर्सा सतगुरु का सतसंग किया है ) मिलेगा और कोई दिन उसका सतसंग करेगा , तो उसको थोड़ा बहुत उसी कदर फ़ायदा हासिल हो सक्ता है , जैसे कि सतगुरु के संग से ॥
३४ - और जो उत्तम अधिकारी का भी सतसंग प्राप्त न होवे तो जब तक कि मौका सतगुरु या उत्तम अधिकारी सतसंगी से मिलने का न बने , तब तक जो मध्यम अधिकारी सतसंगी मिल जावे (कि जिसने सतगुरु का सतसंग किया है )
तो उसी के संग अपनी परमार्थी कार्रवाई सतगुरु से चिट्ठी के जरिये से उपदेश लेकर जारी करे । इस तरह से उसको किसी कदर फ़ायदा हासिल होगा , और मुन्तज़िर रहे कि जब मौका मिले तब उत्तम अधिकारी सतसंगी से या सतगुरु से जाकर जरूर मिले , और कोई दिन उनका सतसंग करके पूरा फायदा हासिल करे ॥
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