प्रस्तुति-दिनेश कुमार सिन्हा
सभी स्नेही मानसप्रेमी साधकजनों को जय सियाराम
श्रीरामचरितमानस– लंकाकाण्ड
दोहासं ख्या 041 से आगे .............
चौपाई :
राम प्रताप प्रबल कपिजूथा। मर्दहिं
निसिचर सुभट बरूथा॥
चढ़े दुर्ग पुनि जहँ तहँ बानर। जय रघुबीर
प्रताप दिवाकर॥
चले निसाचर निकर पराई। प्रबल पवन
जिमि घन समुदाई॥
हाहाकार भयउ पुर भारी। रोवहिं बालक
आतुर नारी॥
सब मिलि देहिं रावनहि गारी। राज करत
एहिं मृत्यु हँकारी॥
निज दल बिचल सुनी तेहिं काना। फेरि
सुभट लंकेस रिसाना॥
जो रन बिमुख सुना मैं काना। सो मैं हतब
कराल कृपाना॥
सर्बसु खाइ भोग करि नाना। समर भूमि भए
बल्लभ प्राना॥
उग्र बचन सुनि सकल डेराने। चले क्रोध करि
सुभट लजाने॥
सन्मुख मरन बीर कै सोभा। तब तिन्ह तजा
प्रान कर लोभा॥
भावार्थ:- श्री रामजी के प्रताप से प्रबल
वानरों के झुंड राक्षस योद्धाओं के समूह के
समूह मसल रहे हैं। वानर फिर जहाँ-तहाँ किले
पर चढ़ गए और प्रताप में सूर्य के समान श्री
रघुवीर की जय बोलने लगे॥ राक्षसों के झुंड
वैसे ही भाग चले जैसे जोर की हवा चलने पर
बादलों के समूह तितर-बितर हो जाते हैं।
लंका नगरी में बड़ा भारी हाहाकार मच
गया। बालक, स्त्रियाँ और रोगी
(असमर्थता के कारण) रोने लगे॥ सब मिलकर
रावण को गालियाँ देने लगे कि राज्य करते
हुए इसने मृत्यु को बुला लिया। रावण ने जब
अपनी सेना का विचलित होना कानों से
सुना, तब (भागते हुए) योद्धाओं को
लौटाकर वह क्रोधित होकर बोला-॥ मैं
जिसे रण से पीठ देकर भागा हुआ अपने
कानों सुनूँगा, उसे स्वयं भयानक दोधारी
तलवार से मारूँगा। मेरा सब कुछ खाया,
भाँति-भाँति के भोग किए और अब रणभूमि
में प्राण प्यारे हो गए!॥ रावण के उग्र
(कठोर) वचन सुनकर सब वीर डर गए और
लज्जित होकर क्रोध करके युद्ध के लिए लौट
चले। रण में (शत्रु के) सम्मुख (युद्ध करते हुए) मरने में
ही वीर की शोभा है। (यह सोचकर) तब
उन्होंने प्राणों का लोभ छोड़ दिया॥
दोहा :
बहु आयुध धर सुभट सब भिरहिं पचारि
पचारि।
ब्याकुल किए भालु कपि परिघ त्रिसूलन्हि
मारि॥42॥
भावार्थ:-बहुत से अस्त्र-शस्त्र धारण किए,
सब वीर ललकार-ललकारकर भिड़ने लगे।
उन्होंने परिघों और त्रिशूलों से मार-मारकर
सब रीछ-वानरों को व्याकुल कर दिया॥
शेष अगली पोस्ट में....
गोस्वामी तुलसीदासरचित
श्रीरामचरितमानस, लंकाकाण्ड, दोहा
संख्या 042,
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