प्रस्तुति - दिनेश कुमार सिन्हा
भक्त का पहला लक्षण है, इस जगत के संबंध में अकारण प्रसन्न रहना, शाश्वत तृप्ति। चाहे जो हो जाए, लाख विपरीतता आने पर भी मुखमंडल पर मुस्कान बनी रहे।
भक्त और दुखी, ये दोनों विपरीतार्थक शब्द हैं। आनन्द स्वरूप परमात्मा से जुड़ा हुआ मनुष्य भी यदि दुखी है, तो वो कैसा भक्त है?
"मैं तो अच्छा ही करता हूँ, फिर मेरे साथ बुरा क्यों होता है? मेरा क्या कसूर है?" ऐसा कहना ही कसूर है। जो हो रहा है वह भगवान की इच्छा से हो रहा है, उसे गलत समझना कोई कम कसूर है?
दूसरी बात, हम अच्छा करें, तो कोई अहसान है किसी पर? अच्छा तो करना ही चाहिए। अगर बुरा करें तो कल हमें ही हानि है, अच्छा करें तो कल हमें ही लाभ है। अच्छा अपने स्वभाववश, अपने ही लाभ के लिए है। दूसरे पर इस बात का क्या दबाव है?
तीसरे, जब हमें किसी से कुछ बुरा सुनने को मिला, तो सामने वाले के होठ हिले, बस इसी से हमें भ्रम हो गया कि वो बोल रहा है। जबकि वो नहीं बोलता, वह तो निमित्त मात्र है, हमारा प्रारब्ध ही उनसे वैसा बुलवा लेता है।
यदि हम यहाँ न होते, कहीं और, किन्हीं और लोगों के साथ होते, तो वे भी ऐसा ही बोलते। क्योंकि लोग तो बेशक बदल जाते, हमारा माथा तो यही रहता। यह जो बात इनसे कहलवा रहा है, उनसे कहलवा लेता। अगर हमारे भाग्य में गाली खाना न लिखा हो तो है किसी की औकात है कि हमें गाली दे दे? दूसरा कारण नहीं है-
"उम्र जाया कर दी लोगों ने औरों के वजूद में नुक्स निकालते निकालते।
इतना खुद को तराशा होता तो फरिश्ता बन जाते॥"
अंतिम बात, कितने लोग हैं हमारे परिवार में? क्या छोटे से परिवार में भी, कोई किस बात से प्रसन्न होता है, किस बात से नाराज होता है, हम समझते नहीं?
पूरी दुनिया में कितने लोग हैं, हमें तो दो चार को ही अपना बनाना है। क्या हम में इतना भी सामर्थ्य नहीं कि इन्हें रिझा सकें? तो भगवान को कैसे रिझाएँगे? जो यहाँ फेल है, वो वहाँ भी फेल है।
अपने समय का विभाजन सही प्रकार से कर के, सब कार्यों को बढ़िया से बढ़िया निभाना है। हर काम में प्रेम उतरना चाहिए। हम इनकी नहीं, इनके रूप में भगवान की ही सेवा करते हैं। फिर कोई एकाध गलती हो भी जाए तो गलती नहीं, आखिर-
"गलती उसी से होती है जो कुछ करने निकलता है।
।व
राधास्वामी दयाल की दया राधास्वामी सहाय राधास्वामी सहाय।।
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