समुंद्र मंथन से निकलेगा झुनझुना
रवि अरोड़ा
यदि हमसे पूछा जाए कि पौराणिक कथा समुंद्र मंथन में मथनी किस पर्वत को बनाया गया था तो यक़ीनन हममें से अनेक लोग झट से बता देंगे- मंदराचल पर्वत । अब यदि पूछा जाये कि कोरोना संकट से अमृत निकालने को जो सरकारी प्रयास हो रहे हैं , उसमें वह मथनी कौन है जिसके हिस्से केवल पीड़ा और टूट-फूट ही आनी है तब शायद कुछ ही लोगों के मुँह से निकलेगा- मध्य वर्ग यानि मिडिल क्लास । जवाब न देने का कारण लोगों की अज्ञानता नहीं वरन पीड़ा को चुपचाप सह जाने की प्रवृत्ति ही है । कोरोना मंथन में अमृत निकलेगा अथवा नहीं , अन्य रत्न क्या क्या होंगे , शेषनाग की भूमिका में कौन है और दैत्य व देवता किसे कहा जाये ? इसका कोई भी जवाब मेरे पास नहीं है मगर एक छोटा सा भाग होने के चलते यह मैं यक़ीन से कह सकता हूँ कि इस मंथन में मंदराचल की तरह चक़रघिन्नी मध्य वर्ग ही बनेगा ।
आँकड़े बताते हैं कि देश में तीस करोड़ से अधिक लोग मध्य वर्ग की श्रेणी में आते हैं । विश्व गुरु और चौथी बड़ी आर्थिक शक्ति बनने का ख़्वाब देश इसी वर्ग के दम पर देख रहा है । यही वह वर्ग है जिसकी क्रय शक्ति को तमाम सरकारें दुनिया भर में भुनाती रही हैं । जीडीपी और शेयर बाज़ार का सेंसेक्स इसी के दम पर कुलाँचे मारता है । रीयल एस्टेट, कम्प्यूटर, मोबाइल फ़ोन, विलासिता के तमाम ब्राण्ड और क्रेडिट कार्ड जैसे इकोनोमिक बूस्टर इस मिडिल क्लास के रहमो करम पर हैं । इसी वर्ग के हाउसिंग लोन, कार-स्कूटर और कंजयूमर लोन ही देश की बैंकिंग व्यवस्था का आक्सीजन हैं । बीमा कम्पनियों को भी सर्वाधिक भुगतान यही वर्ग करता है । पैसे-धेले की दुनिया से इतर बात करें तो तमाम सांस्कृतिक-धार्मिक़ और सामाजिक मूल्यों का पोषक भी यही वर्ग है । मगर कोरोना संकट के इस काल में देश के इस महत्वपूर्ण वर्ग के प्रति व्यवस्था कितनी सहयोगी है , यह प्रश्न मौजू है ।
इसमें कोई दो राय नहीं कि मध्य वर्ग भारतीय मानस का शब्द ही नहीं है और इसे हमने यूरोप से उधार लिया है । यह भी सच है कि अंग्रेज़ों से पहले इस तरह का कोई वर्ग हमारे यहाँ था ही नहीं । अपने लाभ के लिए अंग्रेज़ी हुकूमत ने जो अभिजात्य वर्ग पैदा किया मूलत वही इस वर्ग का सृजक है । इससे पूर्व तो हम वर्ण और जातीय व्यवस्था वाले देश थे । विद्वान बताते हैं कि देश 1857 की पहली क्रांति से पहले देश सामाजिक वर्गों में और क्रांति के बाद राजनैतिक वर्गों में विभाजित हुआ । आज़ादी यानि 1947 के बाद ही आर्थिक केटेगरी बनी और शहरीकरण के चलते यह मध्यवर्ग परवान चढ़ा । न जाने क्या वजह रही कि दुनिया भर के राजनीतिक-सामाजिक विश्लेषकों ने कभी इस वर्ग को गम्भीरता से नहीं लिया । मार्क्सवादी विचारधारा के जनक कार्ल मार्क्स ने तो बुर्जुआ कह कर इसे हेय दृष्टि से ही देखा । भारतीय परिप्रेक्ष्य में भी देखें तो इस वर्ग को वह सम्मान और सहयोग अभी तक नहीं मिला है , जिसकी वह हक़दार है ।
क़ोरोना संकट से पार पाने के लिए बीस लाख करोड़ की बंदर बाँट आजकल हो रही है । इसी पैकेज से कोरोना मंथन होना है । मगर साफ़ दिख रहा है कि मंथन में पर्वत बने मध्य वर्ग के हिस्से अभी तक झुनझुना भी नहीं आया है । भविष्य के सपने बुनने वाली हवाई योजनाएँ यदि धरती पर उतर भी आईं तो भी अमृत चाटने को समृद्ध वर्ग तैयार बैठा है । मध्य वर्ग को तो बस जो बैंकों की किश्त छः महीने बाद अदा करने का झुनझुना मिला है उससे भी अंततः उसकी ही जेब कटेगी । न बिजली का बिल मुआफ़ हुआ न हाउस टैक्स । न कोई किश्त मुआफ़ हुई न कोई सरकारी अदायगी । लघु उद्योगों के नाम पर कुछ घोषणाएँ हैं , वह भी क़र्ज़ देने भर की हैं । सीधे लाभ के नाम पर तो पाँच रुपये का एक अदद मास्क तक नहीं मिला । ऊपर से ताली-थाली बजाने और दीया जलाने का काम भी इसी वर्ग के ज़िम्मे । शायद इसे ही कहते हैं- रहने को घर नहीं , सारा जहाँ हमारा है ।
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