भक्तशिरोमणि श्रीहनुमान्जी की दास्य-रति
(पोस्ट 04)
वात्सल्य-रति
वात्सल्य-रतिमें भक्तका यह भाव रहता है कि मैं भगवान्की माता हूँ या उनका पिता हूँ अथवा उनका गुरु हूँ और वे मेरे पुत्र हैं अथवा शिष्य हैं । अतः मेरेको उनका पालन-पोषण करना है, उनकी रक्षा करना है ।
हनुमान्जीको भगवान् श्रीरामका पैदल चलना सहन नहीं होता । जैसे माता-पिता अपने बालकको गोदमें लेकर चलते हैं, ऐसे ही रामजीकी कहीं जानेकी इच्छा होते ही हनुमान्जी उनको अपनी पीठपर बैठाकर चल पड़ते हैं‒
लिये दुऔ जन पीठि चढ़ाई ॥
………………..(मानस ४/४/३)
पृष्ठमारोप्य तौ वीरौ जगाम कपिकुञ्जरः ॥
…………………(वाल्मीकि॰ कि॰ ४/३४)
माधुर्य-रति
माधुर्य-रतिमें भक्तको भगवान्के ऐश्वर्यकी विशेष विस्मृति रहती है; अतः इसमें भक्त भगवान्के साथ अपनी अभिन्नता (घनिष्ट अपनापन) मानता है ।
माधुर्य-भाव स्त्री-पुरुषके सम्बन्ध में ही होता है‒यह नियम नहीं है । माधुर्य नाम मधुरता अर्थात् मिठास का है और वह मिठास भगवान् के साथ अभिन्नता होने से आती है । यह अभिन्नता जितनी अधिक होगी, उतनी ही मधुरता अधिक होगी । अतः दास्य, सख्य तथा वात्सल्य-भावों में से किसी भी भाव की पूर्णता होने पर उसमें मधुरता कम नहीं होगी । भक्तिके सभी भावोंमें माधुर्य-भाव रहता है ।
जय सियाराम ! जय जय सियाराम !!
(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “कल्याण-पथ” पुस्तकसे
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