जयंत की कुटिलता से आहत सीता जी के चरण
श्रीरामचरितमानस का विष्णुपदी भाष्य-372 ==========================
जयंतकी कुटिलता से आहत सीता जी के चरण हति भागा
ll श्रीरामचरितमानस का विष्णुपदी भाष्य-372 ==========================
जयंत की कुटिलता से आहत सीता जी के चरण
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सीता चरन चोंच हति भागा।{भाग-372}
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*भूमिका*- अरण्यकांड *ब्राह्मनरलीलामिथक* का कांड है।इसमें प्रभु की घोषित लीला का सम्यक् दिग्दर्शन हुआ है।प्रभु की वन-लीला में सती जी मोहित हो चुकी हैं,एतदर्थ यहाँ उन्हें सावधान करते हुए भगवान् शिव कह रहे हैं-
उमा राम गुन गूढ़ पंडित मुनि पावहिं बिरति।
पावहिं मोह बिमूढ़ जे हरि बिमुख न धर्म रति।। मंगला• सोरठा
और यह परमसत्य है कि लीला चरित से पंडित और मुनि वैराग्य प्राप्त करते हैं।परंतु जो भगवान् से विमुख हैं और जिनका धर्म में प्रेम नहीं है, वे महामूढ़ मोह को प्राप्त होते हैं।
गोस्वामीजी इस वन-लीला के चरित को अति पावन चरित कहते हैं- *अब प्रभु चरित सुनहु अति पावन*। यह प्रभु की लीला है,एतदर्थ देवता, मनुष्य और मुनियों के मन को भानेवाले हैं।गोस्वामीजी कहते हैं कि ये सभी स्वार्थी हैं।यहाँ इनका स्वार्थ पूर्ण हो रहा है, एतदर्थ सबके मनभावन हैं। ” भगवान् श्रीराम यज्ञादि की रक्षा करते हैं, मातृ-पितृ भक्त हैं और मुनियों को त्रास देनेवाले राक्षसों के वध में निरत हैं, एतदर्थ क्रमशः सुर ,नर और मुनियों के लिए मनभावन हैं।
संत मानते हैं ” बालकांड में प्रभु का माधुर्य और ऐश्वर्य, अयोध्याकांड में केवल माधुर्य और अरण्यकांड में ऐश्वर्य प्रधान चरित है।” मेरी मान्यता यह है कि यह अरण्यकांड उद्धारकांड है।इस कांड में न केवल प्रभु चौदह हजार निशाचरों का उद्धार करते हैं, वरन् विश्वदु:खदायी राक्षसराज रावण के विनाश के लिए *ललित नरलीला* करते हैं और इसके लिए महामाया जगदंबा सीता के साथ उनकी महालीला आरंभ होती है-
सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला।मैं कछु करबि ललित नरलीला।।
तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा।जौ लगि करौं निसाचर नासा।। 3/24/1-2
इस लीला चरित से न केवल रावण का, वरन् समस्त निशाचरों का उद्धार हुआ।युद्ध के बाद जब इंद्र ने प्रभु के आदेश से अमृत की वर्षा की तो गोस्वामीजी कहते हैं कि भालु-कपि जीवित हो गये,परंतु रजनीचर नहीं-
सुधाबृष्टि भै दुहु दल ऊपर।जिए भालु कपि नहिं रजनीचर।।
रामाकार भए तिन्ह के मन।मुक्त भए छूटे भव बंधन।। 6/114/6-7
एतदर्थ मेरी दृष्टि में यह उद्धारकांड है।
दूसरी सबसे बड़ी बात यह है कि प्रभु के चरणचिह्नों से अंकित दंडकारण्य का प्रदेश अति पावन हो गया और उन चरणकमलों की शरणगति से सभी का उद्धार हो गया।यहाँ तक कि गीधराज जटायु भी वृक्ष के उतुंग शिखर पर बैठकर अहर्निश दंडकारण्य की रज पर अंकित चरणचिह्नों के ध्यान में रत रहते थे।और यही कारण है कि जब जटायु अंतिम समय में भगवान् की प्रतीक्षा में थे और भगवान् श्रीराम उनके समीप पहुँचे तो-
आगें परा गीधपति देखा।सुमिरत राम चरन जिन्ह रेखा।। 3/30/18
इसी प्रकार इस कांड का पूरा चरित प्रभुपदाश्रित है।एतदर्थ उद्धार कांड है।
*प्रसंग*- यह कांड श्रीसीतारामजी की मनोहर लीला से आरंभ होता है।एक बार प्रभु श्रीराम ने सुंदर फूलों को चुनकर अपने हाथों से अनेक प्रकार के गहने बनाकर सीताजी को पहनाया और सुंदर स्फटिक शिला पर विराजमान हो गये। इसी समय इंद्र के मूर्ख पुत्र जयंत ने कौए का रूप धारणकर रघुनाथजी के बल की परीक्षा लेनी चाही।मानो मंदबुद्धि चींटी समुद्र की थाह लेने निकली हो।
वह उस स्थल पर आया जहाँ श्रीसीतारामजी विराजमान थे।उसने अपनी मूढ़ता और मंदबुद्धि के कारण सीताजी के चरणों में चोंच मारकर भागा-
सीता चरन चोंच हति भागा।मूढ़ मंदमति कारन कागा।। 3/1/7
*व्याख्या*- गोस्वामीजी मर्यादावादी कवि हैं।एतदर्थ उन्होंने सर्वत्र कथा की मर्यादा रखी है।वाल्मीकीय रामायण के अनुसार सुंदरकांड में सीताजी यह कथा हनुमानजी से कहती हैं और इसके अनुसार माता के वक्ष में जयंत ने चोंच मारी-
वायसः सहसागम्य विददार स्तनान्तरे। 5/38/22
अध्यात्म रामायण में भी यह कथा सुंदरकांड में ही है।सीताजी हनुमानजी से कहती हैं कि जयंत ने मेरे पैर के लाल अंगूठे को अपनी चोंच तथा पंजे से फाड़ डाला-
मत्पादाङ्गुष्ठमारक्तं विददारमिषाशया।। 5/3/54
आनंद रामायण में भी अंगुष्ठ की ही चर्चा है- सीताङ्गुष्ठं मृदु रक्तं विददारमिषाशया।1/6/87
संत यह मानते हैं कि रामचरितमानस में गोस्वामीजी ने सभी के मतों की रक्षा की है।पक्षी का यह स्वाभाविक गुण है कि वह जब झपट्टा मारता है तो चरण और चोंच दोनों का प्रयोग करता है।मर्यादावादी कवि तुलसीदास यहाँ कहते हैं कि जयंत कौए ने सीताजी पर चरण और चोंच से आक्रमण किया- सीता चरन चोंच हति भागा। उन्होंने अंग के नाम ही नहीं दिये हैं।
यह अपना-अपना मत है।मेरी दृष्टि में अरण्यकांड का यह एक ऐसा प्रसंग है, जो एक दुष्ट मोहग्रस्त इंद्रपुत्र से संबद्ध है।इंद्र ने भी अहल्या के साथ छल किया था।आज उसका बेटा जगदंबा सीताजी के साथ दुष्टता करना चाहता है।यहाँ सुरपति सुत रघुपति का बल देखना चाहता है। गोस्वामीजी कहते हैं कि रघुपति का बल समुद्र की तरह है और सुरपति सुत जयंत का चींटी की तरह।और यह अकारण नहीं है कि इस अवतार में प्रभु ने जयंत को सीख दी तो कृष्णावतार में उसके पिता इंद्र को।
पूरे प्रसंग को देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि कृपालु प्रभु ने अंततः जयंत पर कृपा ही की, जब उसने त्राहि-त्राहि करते हुए प्रभु के चरणों की शरणगति ली।यह प्रसंग आरंभ होता है *सीता चरन* से और समाप्त होता है- *गहेसि पद जाई* अर्थात् श्रीराम के चरणों को पकडा।स्पष्ट है कि यह सीताराम के चरणों से संपुटित है यह प्रसंग।और यह चरण की ही महिमा है कि दुष्ट जयंत भी चरणाश्रित होकर प्रभु की कृपा पा लेता है।गोस्वामीजी कहते हैं- को कृपाल रघुबीर सम। और कृपा की यही परिभाषा है कि दुष्ट जिस किसी भाव से चरण को स्पर्श कर ले, प्रभु श्रीसीतारामजी उसपर कृपा ही करते हैं, भले ही यह हम छुद्र जागतिक जीवों को अटपटा लगे,परंतु कृपा और करुणा की धारा समान रूप से जगत् में प्रवाहित होती रहती है, अन्यथा हमारी करनी आज जयंत से कम है क्या? हमारा दुष्ट मन प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से चोंच मारने में ही तो निरत है।
अरण्यकांड में चरण-प्रसंग की पहली चौपाई है-
सीता चरन चोंच हति भागा
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