*आज का अमृत*🏵 जय श्री कृष्णा 🏵 कबीर जी का मैना
संत कबीर जी पेड़ों की झुरमट तले बैठे थे । उनके पास की एक शाखा पर एक पिंजरा टंगा था, जिस में एक मैना फुदक रही थी बड़ी अनूठी थी, वह मैना खूब गिटरपिटर मनुष्यों की सी बोली बोल रही थी। कबीर जी भी उससे बातें लड़ा रहे थे। दोनों हँस मैना से कुछ ऊपर पत्तों में छिपकर बैठ गए।
इतने में, नगर सेठ अपनी पत्नी के साथ कबीर जी के क़दमों में हाज़िर हुआ। मन की भावना रखी - 'महाराज, मेरे सिर के बाल पक चले हैं। घर-गृहस्थी के दायित्व भी पूरे हो गए हैं। सोच रहा हूँ, हमारी सनातन परम्परा के चार आश्रमों में से तीसरी पौड़ी 'वानप्रस्थ' की और बढ चलूँ एकांत में सुमिरन-भजन करूँ।
*कबीर, बिना किसी लाग-लपेट के, एकदम खरा बोले- 'सेठ जी,यूँ वन में इत-उत डोलने से हरि नहीं मिलता!'
*सेठ -फिर कैसे मिलता है,हरि ? आप बता दें महाराज।
कबीर फिर मैना से बतियाने लगे - 'मैना रानी, बोल - राम...राम... !' मैना ने दोहराया - 'राम...राम '* *कबीर उससे ढेरों बातें करने लगे सेठ-सेठानी को इतना साफ बोलते देखकर खुश हो रहे थे... कि तभी कबीर उनकी और मुड़े और बोले-'जानते हो सेठ जी, मैना को मनुष्यी बोली कैसे सिखाई जाती है? आप उसके सामने खड़े होकर उसे कुछ बोलना सिखाओगे, तो वह कभी नहीं सीखेगी। इसलिए मैंने एक दर्पण लिया और उसकी आड़ में छिपकर बैठ गया। दर्पण के सामने पिंजरा था। मैं दर्पण के पीछे से बोला - 'राम!राम!' मैना ने दर्पण के में अपनी छवि देखी। उसे लगा उसका कोई भाई-बंधु कह रहा है- 'राम!राम!' इसलिए वह भी झट सीख़ और समझ गई। इसी तरह दर्पण की आड़ में मैंने उसे पूरी मनुष्यी बोली सिखाई। और अब देखो, यह कितना फटाफट बोलती है...!'
*इतना कहकर कबीर ताली बजाकर हँस दिए फिर इसी मौज मैं, सेठ-सेठानी से सहजता से बोल गए - 'ऐसे ही सेठ जी भगवान कैसे मिलता है, यह तो खुद भगवान ही बता सकता है। लेकिन अगर वह यूँ ही सीधा बताएगा, तो तुम्हारी बुद्धि को समझ नहीं पड़ेगी इस लिए वह मानव चोले की आड़ में आता है और ब्रह्मज्ञान का सबक सिखाता है - ब्रह्म बोले काया के ओले काया बिन ब्रह्म कैसे बोले वह मानव बनकर आता है, मानव को अपनी बात समझाने उस महामानव को, मनुष्य देह में अवतरित ब्रह्म को ही हम 'सतगुरू' सच्चा गुरु या साधू' कहते हैं।
निराकार की आरसी,साधों ही की देहि |*
लखा जो चाहै अलख को, इनही में लखि लेहि ||*
अर्थात सदगुरू की साकार देह निराकार ब्रह्म का दर्पण है | वो अलख (न दिखाई देने वाला ) प्रभु सच्चे गुरू की देह में प्रत्यक्ष हो आता है।
इसलिए सेठ जी, अगर भगवान को पाना है, तो 'वानप्रस्थ' नहीं, 'गुरूप्रस्थ' बनो | सदगुरू के देस चलो चलो
चलु कबीर वा देस में, जहँ बैदा सतगुरू होय ||
सेठ - सोलह आने सच बात, महाराज मगर एक दुविधा है। दास जानना चाहता है कि मनुष्य चोले में तो कई पाखंडी स्वयं को 'गुरू' कहलाते घूमते हैं फिर हम ज्ञानीजन कैसे पहचाने कि इस काया में साकार ब्रह्म है या कोई ढोंगी है ?
कबीर ने प्रशंसा भरी दृष्टि से सेठ जी को देखा - 'उत्तम प्रशन किया है आपने जब तक देखूं न अपनी नैनी, तब तक पतीजूं न गुरू की वैणी - सोच-समझ कर, देखभाल कर ही किसी को सदगुरु दर्जा देना चाहिए।
भई, मैं अपनी राय कहूँ, तो -
साधो सो सतगुरू मोहिं भावै।
सत नाम नाम का भरि भरि प्याला, आप पिवै मोहिं प्यावै।।
*मुझे तो ऐसा सदगुरु भाता है,जो प्रभु के अव्यक्त आदिनाम का अमृत मुझे पिला दे *
*परदा दूरि करै आँखिन का, निज दरसन दिखलावै *
*जा के दरसन साहिब दरसै, अनहद सबद सुनावै*
*जो प्रभु की सिर्फ मीठी-मीठी बातों में न बहलाए बल्कि मेरी आँख पर से अज्ञानता का पर्दा हटा दे, मेरा शिव - नेत्र (दिव्य दृष्टि ) खोल दे और साहिब का साक्षात् दीदार करा दे ,और मेरे मेरे अंतर्जगत में अनहद बाणी गूँज उठे... वही पूरा तत्वदर्शी गुरू है। वही सत्पुरुष है'
उधर सेठ-सेठानी और इधर हंस मनमुखा गदगद हो चुके थे। दोनों हंसों को 'गुरू क्यों? और गुरू कैसा?'- इन दो सीखों के बेशकीमती मोती मिल चुके थे। वे उन्हें अपनी चोंच से चुग कर, 'संतों के देस' से वापिस लोट रहे थे।
आपके अंदर ही ये दोनों हंस रहते हैं - आपका मन (मनमुखा ) और आपकी आत्मा (आत्माराम) आपका हंस आत्माराम परमात्मा के दर्शन के लिए व्याकुल है। पर हंस मनमुखा उसका साथ देने को तैयार नहीं होता माने वह किसी सदगुरु, तत्वदर्शी सत्पुरश से ज्ञान-दीक्षा लेने के लिए राजी नहीं होता पर अब तो आपके दोनों हंसों ने 'संतों के देस' की सैर कर ली है और सत्संग के मोती भी पा लिए है। तो क्या अब आपका 'मनमुखा' माना ?
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