राधास्वामी!
मूल नाम को खोजो भाई
सतगुरु यों कहि कहि समझाई॥१॥।
बिना शब्द नहिं होत उधारा ।
जगत जाल से होय न न्यारा॥२॥
ताते प्रीति गुरू की कीजे ।
तन मन शब्द माहिं अब दीजे॥३॥
भाग जगे गुरु चरन निहारे।
मेहर हुई घट प्रीति निहारे।।४।।
सतसँग कर परतीत बढ़ाऊँ।
सतगुरु दरशन नित नित चाहूँ॥५॥
बंधन तोड़ हुई अब न्यारी ।
चरनन में प्रेम बढ़ा री॥६॥
आरत कर घट देखूँ नूरा ।
चरन सरन फल पाऊँ पूरा ।।७।।
परम पुरुष राधास्वामी प्यारे ।
उन चरनन में रहँ सदा रे॥८॥
(प्रेमबानी-1-शब्द-25-पृ.सं.170)
(करनाल ब्राँच हरियाणा)
🙏🏿🙏🏿🙏🏿🙏🏿🙏🏿🙏🏿🙏🏿🙏🏿🙏🏿🙏🏿🙏🏿🙏🏿🙏🏿🙏🏿🙏🏿🙏🏿🙏🏿
No comments:
Post a Comment