प्रस्तुति - रेणु दत्ता / आशा सिन्हा
एक शिकारी ने शिकार पर तीर चलाया। तीर पर सबसे खतरनाक जहर लगा हुआ था।
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पर निशाना चूक गया। तीर हिरण की जगह एक फले-फूले पेड़ में जा लगा। पेड़ में जहर फैला, वह सूखने लगा।
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उस पर रहने वाले सभी पक्षी एक-एक कर उसे छोड़ गए।
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पेड़ के कोटर में एक धर्मात्मा तोता बहुत बरसों से रहा करता था। तोता पेड़ छोड़ कर नहीं गया, बल्कि अब तो वह ज्यादातर समय पेड़ पर ही रहता।
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दाना-पानी न मिलने से तोता भी सूख कर काँटा हुआ जा रहा था।
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बात देवराज इन्द्र तक पहुँची। मरते वृक्ष के लिए अपने प्राण दे रहे तोते को देखने के लिए इन्द्र स्वयं वहाँ आए।
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धर्मात्मा तोते ने उन्हें पहली नजर में ही पहचान लिया।
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इन्द्र ने कहा, देखो भाई इस पेड़ पर न पत्ते हैं, न फूल, न फल। अब इसके दोबारा हरे होने की कौन कहे, बचने की भी कोई उम्मीद नहीं है।
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जंगल में कई ऐसे पेड़ हैं, जिनके बड़े-बड़े कोटर पत्तों से ढके हैं। पेड़ फल-फूल से भी लदे हैं।
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वहाँ से सरोवर भी पास है। तुम इस पेड़ पर क्या कर रहे हो, वहाँ क्यों नहीं चले जाते ?
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तोते ने जवाब दिया, देवराज, मैं इसी पर जन्मा, इसी पर बढ़ा, इसके मीठे फल खाए। इसने मुझे दुश्मनों से कई बार बचाया।
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इसके साथ मैंने सुख भोगे हैं। आज इस पर बुरा वक्त आया तो मैं अपने सुख के लिए इसे त्याग दूँ।
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*जिसके साथ सुख भोगे, दुख भी उसके साथ भोगूँगा, मुझे इसमें आनन्द है।
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आप देवता होकर भी मुझे ऐसी बुरी सलाह क्यों दे रहे हैं ?' यह कह कर तोते ने तो जैसे इन्द्र की बोलती ही बन्द कर दी।
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तोते की दो-टूक सुन कर इन्द्र प्रसन्न हुए, बोल.. मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। कोई वर मांग लो।
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तोता बोला, मेरे इस प्यारे पेड़ को पहले की तरह ही हरा-भरा कर दीजिए।
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देवराज ने पेड़ को न सिर्फ अमृत से सींच दिया, बल्कि उस पर अमृत बरसाया भी।
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पेड़ में नई कोपलें फूटीं। वह पहले की तरह हरा हो गया, उसमें खूब फल भी लग गए।
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तोता उस पर बहुत दिनों तक रहा,मरने के बाद देवलोक को चला गया।
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युधिष्ठिर को यह कथा सुना कर भीष्म बोले, अपने आश्रयदाता के दुख को जो अपना दुख समझता है, उसके कष्ट मिटाने स्वयं ईश्वर आते हैं।
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बुरे वक्त में व्यक्ति भावनात्मक रूप से कमजोर हो जाता है। जो उस समय उसका साथ देता है, उसके लिए वह अपने प्राणों की बाजी लगा देता है।
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किसी के सुख के साथी बनो न बनो, दुख के साथी जरूर बनो।
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