प्रस्तुति - आत्म स्वरूप/
सुनीता शरण मेहर स्वरूप
कल से आगे -जो कोई ऐसा मान रहे की मालिक सब जगह मौजूद है फिर जाना आना कहां है, यह बात दुरुस्त नहीं है क्योंकि खुद जीव यानी सुरत इस कदर परदो या गिलाफों में गुप्त छिपी है कि जब तक वह ना फोडे जावे तब तक अपना रूप नजर नहीं आवेगा और फिर वहां से सच्चे मालिक यानी भंडार का दर्शन और भी दूर है और कितने ही पर्दों में गुप्त है। इसी तरह यह भी पर्दे फोड़ कर दो मुकाम तक पहुंचना हो सकता है । इन लोगों की जब नजर पड़ेगी तो बाहर के पर्दे या गिलाफ पर, जिसको स्थूल शरीर कहते हैं । और यह हर दम बदलने वाला और नाशवान है। फिर उनको सत्तपद का दर्शन कैसे मिल सकता है ? वेदांत शास्त्र कहता है कि अन्नमय स्थूल शरीर, पांच कर्मेद्रियाँ और प्राण , पांच ज्ञानेंद्रियां और मन, और पाँच ज्ञानेंद्रियाँ और बुद्धि, मन बुद्धि व इंद्रियों के परे आत्मा का बासा है। इन पर्दो को फोड कर जीव यानी सुरत का दर्शन हो सकता है ।और जब इन पदों को फोड़ने का अभ्यास कुछ भी नहीं किया जाता तो इन बातों का कहना और सुनना बेफायदा है, क्योंकि सिर्फ बातों से मुक्ति या सच्चा उद्धार नहीं हो सकता। देखो किसी दरख़्त के बीज को कि उसकी रूह कितने पर्दों यानी तहों या छिलकों में और फिर उसके मगज् के अंदर किसी जगह में गुप्त छिपी हुई है, जहां से कि वक्त उगने के कुल्ला फूट कर धार रुप होकर निकलता है । इसी तरह सब शरीरों में रूह यानी जीव या सूरत कितने ही पर्दो में पोशीदा है और उसका दर्शन सब पर्दे हटाकर अंतर के चैतन्य यानी रूह की दृष्टि से हो सकता है। बाहर की रचना में यह एक एक परदा एक एक मँढ्डल के साथ समानता रखता है । सो जब तक भेद इन परदों का दरियाफ्त करके और उनके पार जाने की जुगती का अभ्यास नहीं किया जाएगा, तब तक रास्ता तय होगा और जब तक सच्चे मालिक का दर्शन मिल सकता है। राधास्वामी मत में भेद इन परदों का और जुगत उनके तय करने की साफ साफ बताई जाती है और उसका अभ्यास करने से आहिस्ता आहिस्ता सुरत यानी रूह के मुकाम से ब्रह्मांड की तरफ की सरकती जाएगी और जिस कदर उस तरफ को चलती जावेगी उसी कदर उसको अंतर में आनंद और रस मिलता जाएगा और देह और संसार के दुख सुख और भोगों की चाह का असर कम होता जाएगा। क्रमश:🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**
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