"Whatever you see happening in the waking state happens only to the knower,and since THE KNOWER IS UNREAL,nothing in fact ever happens."
"The I-feeling is the root of all thoughts.
If you destroy the root, the leaves and branches will wither away."
"Being aware of the Self is the real meditation.When the mind gives up its habit of choosing and deciding,it turns towards its own real nature.At that time it gets into the fundamental state.
When the ego gets more powerful entry into this state does not take place."
"मैं" मन है।मन "मैं" है।
।यह ज्ञाता है।
मन वास्तविक हो तो ज्ञाता वास्तविक हो।मन अवास्तविक है इसलिए ज्ञाता भी अवास्तविक है।
हम कहते हैं-"मैं" का अनुभव तो होता है।
तो यह अनुभव शब्द का अनुभव है,शाब्दिक है।बौद्धिक है।अनुभव कहने से कुछ यथार्थ नहीं होता।सभी शब्दों के अनुभव झूठे हैं,भ्रामक हैं।
सत्य का पता लगाना है तो इन तथाकथित अनुभवों से परे जाना होगा।
सवाल है क्या हम बिना "मैं" शब्द के रह सकते हैं?
कोशिश करें।जो भी सोचें इसमें "मैं" शब्द को न आने दें।
क्या होगा?विचार का रोज का ढांचा बिखरने लगेगा।आप वैसा ही नहीं सोच पायेंगे जैसी आदत पडी है सोचने की।फिर सोचेंगे भी तो कुछ बेहतर सोचेंगे,निस्वार्थ सोचेंगे,तटस्थ सोचेंगे।आध्यात्म की स्कूल यहीं से शुरू होती है उसके पहले नहीं।
मान लीजिए कोई घटना आपको अच्छी या बुरी लगती है।आपको उसका स्मरण हो रहा है।आप चिंतन कर रहे हैं मगर "मैं" शब्द को आपने बिल्कुल एक तरफ कर दिया है।अब जो भी चिंतन चलेगा उसमें राग या द्वेष का प्रभाव नहीं होगा।आप नहीं कह पायेंगे-मैं इसे पसंद करता हूं या नापसंद करता हूं।
यह कहनेवाला मन है और आप मन नहीं हैं।आप हैं स्वयं(सेल्फ,आत्मा,चेतनस्वरुप)।"मैं" शब्द को छोडने पर अपने चुनावों एवं निश्चयों समेत मन भी छूट जाता है।रह जाते हैं आप।आपको नहीं छोडा जा सकता।कैसे छोडेंगे?दो आप तो हैं नहीं जो एक आप,दूसरे आपको छोडेंगे या उससे छूटेंगे।
खासकर दुख में सभी खुद से छूटना चाहते हैं।यह मन ही है जो छूटना चाहता है।यह
"दूसरा" है।यह "मैं" है।
एक "मैं" दूसरा आत्मा(सेल्फ)।दो होने से छोडने,छुडाने की बात करने में सुविधा रहती है।एक ही हो तो कोई सुविधा नहीं है।
वह जो एक है वही आपका मूल स्वरुप है।वही आप हैं।गडबडी "मैं" के कारण है जिसे मन कह सकते हैं,माया कह सकते हैं।स्वयं को माया से मुक्त होना हो तो एक प्रबल उपाय है "मैं" शब्द का प्रयोग करना छोड ही दें हमेशा के लिए।ऐसा अभ्यास हो जाय कि "मैं" शब्द कभी याद ही नहीं आये आपको।
फिर सब कुछ चलेगा मगर उसमें मौलिक परिवर्तन आ जायेगा।अब आप वैसे ही नहीं सोच सकते जैसा पहले सोचा करते थे।
कोई कहे इससे जीवन व्यवहार में कठिनाई आयेगी।
कोई कठिनाई नहीं आयेगी।कठिनाई तो जो बंधा है उसे आती है,जो छूटा है उसे कैसी कठिनाई?
स्वयं,"मैं" के चंगुल से आजाद हो तो पता चले कि फिर वाकई में कोई कठिनाई आती है या नहीं?हम रामचरित मानस की यह चौपाई बार बार गा सकते हैं-मैं अरु मोर तोर तें माया।मगर शायद ही इसे गंभीरता से लेते हैं।
गंभीरता से लें तो तुरंत ध्यान जायेगा कि अरे "मैं" तो माया है और माया के साथ हम राम की(आत्मा की)भक्ति करना चाहते हैं।कैसे होगा?बाधाएं आयेंगी ही।मैं सुखी,मैं दुखी,मैं खुश,मैं परेशान।मैं यह नहीं चाहता, मैं वह नहीं चाहता।हर वक्त मैं मैं मैं अर्थात् माया माया माया।छोड क्यों नहीं देते उसे?
रामकृष्ण कहते-मैं नहीं जाता तो रहे दास बनकर।'
दास बनेगा तो बंधन में आ जायेगा।अब मनमानी नहीं चल सकती।सुखदुख के कल्पित प्रश्न विकराल नहीं हो सकते।
और जब "मैं" रहता ही नहीं तब कुछ
अच्छाबुरा नहीं होता।प्रकृति द्वंद्वात्मक है।यह उसकी सहजता है।इसमें कोई बुराई नहीं।रोज आंधीतूफान चला करें कोई हर्ज नहीं मगर "मैं" जहां मौजूद है वहां आपत्ति है,अस्वीकार है।
और जहां अस्वीकार है वहां द्वंद्व की स्वाभाविकता, अस्वाभाविकता में बदल जाती है।गीता बारबार समता के लिए कहती है।इसका अर्थ है प्रकृति जैसी भी है उसे समझें,अहंकार को आगे नहीं करें।अहंकार प्रतिरोधी है।वह कभी समझने नहीं देता।और है कुछ भी नहीं।सिर्फ मान्यता है-
अहम्मन्यता।"मैं" की मान्यता।इसे एक तरफ करके समझ गहरायें तो समता का सूत्र स्वतः प्रकाश में आयेगा।तब किसी घटना, परिस्थिति को लेकर उद्वेग न होगा।क्या किया जा सकता है-यह होगा।आदमी की उपस्थिति होगी अर्थात् आत्मा की(सेल्फ की)उपस्थिति।वह जो कर पायेगी वह बेशक अहंकार के कार्य से क ई गुना बेहतर,रचनात्मक और शक्तिशाली होगा।हम समझ नहीं पाते कि यह संसार जैसा भी है यहां समझ और स्वयं की शक्ति ही कारगर है,अहंकार तो अपने पसंदनापसंद, इच्छा अनिच्छा, होना चाहिए नहीं होना चाहिए के द्वंद्व से ही नहीं उबर पाता।वह समाधान की कोशिश में समस्या बढाने का ही काम करता है।वह उस कुपथ्य का काम करता है जो औषधि को काम करने देना तो दूर और नयी नयी बीमारी, नयी व्याधियों का कारण बन जाता है।
समझे उसके लिए ये सब बातें हैं,न समझे उसके लिए कुछ भी नहीं।
प्रयोग की दृष्टि से ही सही जब भी कोई समस्या आये उस पर मैं सहित विचार करें तथा बिना मैं के विचार करें।फर्क मालूम होगा।मैं नहीं है तो समस्या शब्द भी नहीं होगा।समस्या शब्द मैं के कारण है।मैं की अनुपस्थिति में समस्या नहीं होती,कर्म होता है,कर्माधिकार अर्थात प्रचंड कर्म ऊर्जा।फल के लिए दीनहीन होनेवाला अहंकार इससे वंचित होता है अतः गीता संदेश है-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
"Do not think that you are.Be."
"The Self is simple being.Be."
द्रष्टा-दृश्य रहित
स्पष्ट हार्दिकता वाला जीवन जीएं,द्रष्टा-दृश्य सहित मानसिकता वाला द्वंद्वयुक्त जीवन नहीं-वह भ्रम है।
राधास्वामी।
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