Tuesday, May 5, 2020

छठ की कथा



*छठ की कहानी*


भोरे भोरे का मन में आया कि लगा दिए शारदा सिन्हा का छठ गीत यूट्यूब पर। और कभी कोई त्यौहार का गाना नहीं लगाते मगर दीवाली बीता नहीं की, छठ की याद आने लगती है, गाँव घूमने लगता है आंखों के सामने।

दिमाग में पूरा बइठा लिए हैं, नो नॉनवेज। हर भोजन के पहले अलार्म की तरह बजता हुआ ये खयाल, भूलने वाली बात ही नहीं।

बचपन में दशहरा पर हमलोग का कपड़ा किनाता था, साल में २ बार, एक होली, एक दशहरा। पापा के साथ बाज़ार जा के कपड़ा किना जाता, कभी कभी फेरने भी जाते, पर मां के साथ चुप्पे से। दीपावली और छठ भी उसी कपड़ा में पार करते थे, वो भी इतराते हुए, चमकाते हुए। औरंगाबाद से घर जाते थे, भोरे भोरे ३ बजे उठ के मां रास्ता के लिए नाश्ता बनाती, ४:३० में निकलना होता था, ठण्ड भी होता था सो स्वेटर वैगरह पहीन के फूल टाईट।

भोरे भोरे २ गो रिक्शा आ जाता, पहिले सूटकेस रखाता, फिर हम २ मां के साथ और बाकी २ पापा के। पैर को सूटकेस के ऊपर फैला के एकदम कालिया के अमिताभ बच्चन टाइप सीना तान, हाथ पीछे करके, गरदन अकड़ाते चले। डांट खाना हमारा धर्म था, टोपी मफलर कान पर बांधने के लिए पापा का नॉनस्टॉप हिदायत। मगर उनका ध्यान बंटा नहीं की मफलर नीचे गला में, स्टाइल खराब हो जाता न। फिर रेलवे स्टेशन पर ट्रेन का इंतजार, एसी कोच का मज़ा नहीं था तब, जनरल डब्बा का मज़ा, वो भी भयानक भीड़ में कोंचाते हुए, कभी याचना, कभी धमका के अमिताभ बच्चन टाइप, हम जहां खड़े होते, लाइन वहीं से शुरू होती वाले स्टाइल में सीट का जुगाड करते। अब अगर जाना पड़े तो बीबी बच्चा विद्रोह कर देगा, धमका के ले भी गए तो आगे के कुछ साल खराब होने की गारंटी।

खैर, दोपहर तक जहानाबाद, और वहां से पैदल गांव, तब वो २ मील का सफर उछलते कूदते तय हो जाता, मानो पंख लग जाते। एक मील दूर से ही दूरा पर बैठा हुआ कोई देख लेवे तो दौड़ के हाथ से सामान लेने पहुंच जाए। अब तो पैदल यात्रा का मज़ा ही खत्म, ऊपर से कोई देख भी ले तो कन्नी काट ले, कहीं चाचा सामान उठाने ना बोल दें। पहले तो दुरा पहुंच के सबको प्रणाम करते, फिर भाई लोग के साथ मस्ती और तब अंत में घर का नंबर आता। पहुंचते ही दादी की डांट, एकरा तो घर में घुसे के मने न करा हई, पहले देवता को प्रणाम और तब सबको।  आँगन में मिट्टी के चूल्हे पर आलूदम की सौंधी खुशबू फैली हुई। दादी छुपा के खोआ रखे रहती मेरे लिए, चुपके से भर अंजुरी खोआ ले के चपाचप चालू, जबतक गांव में रहते तबतक रोज नेउन और खोया मिठाई का लुत्फ।

ऊ अंगना के भाई, बहन, चाची सब आते मिलने। भाई लोग को चुपचाप खबर दे देते कि दीवाली वाला बचा हुआ पड़ाका रखे हुए हैं, घटेगा तो और आएगा जहानाबाद से, बाबा से घिघियाएंगे तो पईसा मिलबे करेगा, इसलिए चिंता नहीं है।

गांव में हर घर के छत पर गेहूं सुखाना चालू हो जाता। दिन भर बच्चे रखवाली करते, फिर अगले दिन चक्की पर गेहूं पिसवाने हमारा पूरा हुजूम जाता। हमारे यहां बिजली तो थी नहीं, गर्र गर्र जेनरेटर और चक्की का शोर, मगर वो कानफोड़ू आवाज भी संगीत लगती।

मां, चाची और दादी छठ पूजा करती, उ अंगना में भी सब चाची, दादी लोग भी, साथ में २-३ चाचा बाबा लोग भी।

पहला दिन नहाए खाए के दिन शुद्ध भोजन बनता। ये हमारा पहला भयानक थरथराता दिन होता, बिना नहाए खाना मिलने का कोई सीन नहीं। दूसरे दिन खरना का परसाद पूरे गांव में घूम घूम के खाते। तीसरे दिन संझीया अरग की फूल तैयारी। सुबह एक ग्रुप पूरा रास्ता से कंकड़ चुन के हटाते पोखर तक जाते और घाट छेंक के पूरी साफ सफाई करते। इसी में कभी कभी दूसरे घरों के बच्चों से झगड़ा भी होता मगर गांव का सबसे बड़ा परिवार होने का फायदा भी मिलता था। दोपहर बाद दऊरा सर पर रखे नंगे पांव आगे आगे हम और पीछे पूरा परिवार की औरतें गीत गाती चलती। रास्ता भर छठ के गीत गाती गांव भर की महिलायें, भर माथा सिन्दूर नाक से लेकर मांग तक और उमर के हिसाब से लंबा घूंघट। दाऊदपुर सूर्य मंदिर के किनारे खूब बड़ा पोखर, चारों तरफ़ चाट-मिठाई, खिलौनों और गुब्बारों से सजी दुकानें। चारों तरफ गाजे बाजे और पूरा हुजूम,  पूरा गाँव घाट पर, अद्भुत नज़ारा। पोखर के पास वाले खेत में हम बच्चे ..पड़ाका में बिजी, उधर से खोजते खोजते कोई चाचा अरग देने के लिए बुलाने आए, किसी बच्चे को एकाध थप्पड़ भी पड़ जाता, चल सार तहिने, इहां अरग में देरी हो रहा है और तू ईहे सब में लगा है, गाल सहलाते मन ही मन गाली देते चले पोखर किनारे, पहुंचते पहुंचते थप्पड़ भूल जाते दादी के पास, सारी महिलाएं घुटने भर पानी में भगवान सूर्य को प्रणाम कर रही हैं, आस पास पूरा परिवार, अकल्पनीय नज़ारा, अरग पड़ गया, भगवान अस्त हुए और हम सब चले कल भोरे भोरे फिर आने के लिए। रात में हमारी बदमाशी चालू मगर जल्द ही नींद आ जाती, सुबह सुबह ३ बजे जग जाते, नहा धो के फिर घाट चलने को तैयार, पेट्रोमैक्स जलाया जाता और हम लोग अंधेरे में ही निकल पड़ते। दादी खाली पैर जाती थी, और कुछ नई नवेली दुल्हनें चप्पल पहन के चलती। भगवान के उगने के १० मिनट पहले ही सारी महिलाएं पानी में खडा होकर ध्यानमग्न हो जाती।

सूर्योदय के बाद पूजा खत्म होते ही ठेकुआ बंटाई चालू, हमको स्पेशल घी वाला भी मिलता। महिलाओं के लिए थरमस में गरम गरम चाय घर से आई रहती। दिन में मस्त गरम गरम भात, दाल, बचका, आलूदम और भी बहुत कुछ। इतना स्वादिष्ट जैसे लगता जीवन में पहली बार खाने को मिल रहा हो।

दूसरे दिन पापा का फरमान, आज दोपहर में लौटना है, दौड़कर बाबा से सैटिंग करते, फिर दादी से, कम से कम २ दिन रुकने बोलिए पापा को, तब १ दिन के लिए मान ही जाएंगे, मां का बैग सरियाता देख के दिल धक धक, पर बाबा का कहना काम आया,१ दिन का जुगाड हो गया रुकने का और, दूसरे दिन जाना ही है, मां देवता को प्रणाम करती, दादी के आँखें भरी, बाबा कहते जाड़ा के छुट्टी में आ जाना किसी के साथ। चाची लोग, भाई बहन सब आंगन में आते और कुछ दूर साथ भी चलते, रोना रोहट भी थोड़ा बहुत होता। अब तो ये जमाना है कि आगे चले नहीं की लोग भी मुड़ कर लग गए अपने अपने काम पर।

लिखने का अंत नहीं, आँखें नम हैं, पता नहीं कब, पता नहीं कब, कब वो छठ आए, गांव वाला, सिर्फ गांव वाला, वही वाला, बिल्कुल वैसा ही।।।।

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