...**राधास्वामी!! 18-01-2021- आज शाम सतसंग में पढे गये पाठ:-
(1) आओ री सखी चलो गुरु सतसँग में। जीव का काथ बनाई।।टेक।।-(वहाँ से भी अधर चढावत।अलख अगम का दरशन पावत।। राधास्वामी चरन निहारत। निज घर जाय बसाई।।) (प्रेमबानी-4-शब्द-7-पृ.सं.85,86)
(2) सजीले हज तुम अकह अपारी।।टेक।। तेज अगाध सुशोभित सुन्दर चमक दमक बलिहारी।।-(राधास्वामी मेहर भेद यह जाना चरन सरन बलिहारी।।) (प्रेमबिलास-शब्द-127-पृ.सं.186,187)
(3) यथार्थ प्रकाश-भाग दूसरा कल से आगे।।
🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**
**राधास्वामी!! 01-2021
आज शाम सत्संग में पढ़ा गया बचन
- कल से आगे-( 122)-
जो अर्थ ऊपर लिखा गया वह इतना स्पष्ट है कि किसी टीका-टिप्पणी की आवश्यकता नहीं। 'विद्या' शब्द जैसा कि फुटनोट में दिखलाया गया है साधारण लौकिक विद्याओं के लिए प्रयुक्त हुआ है। और 'अविद्या' शब्द भी विपर्यय अर्थात् मिथ्या ज्ञान के लिए। जिसने एक बार भी ध्यानपूर्वक हिंदू-धर्म की पुस्तकें पढ़ी है उसे एक क्षण के लिए भी अस्वीकार न होगा कि उनमें लौकिक विद्याओं को संसार की ओर ले जाने वाली, और अंतरी ज्ञान को परमात्मा या मोक्ष की ओर ले जाने वाला बतलाया गया है। इसका सविस्तार वर्णन आगे चलकर करेंगे । अभी शब्द की कड़ियों के अर्थ पर विचार करते हैं। इस शब्द में निम्नलिखित कड़ियां विशेष रूप से विचारने योग्य हैं:-
★संत प्रेम के सिंध भरे हैं। तैं उलटी बुधि कीचड सानी।२।★★
★★तू धन मान प्रतिष्ठा चाहे। और चतुरता में लिपटानी।४।★★
★★ बानी बन में रहे भुलाने। पढ़-पढ़ पोथी जन्म बितानी।९।★★
★★घट के भीतर नेक न ठहरे। मन चंचल की गति न पिछानी।१०।★★
इन कडियों में बतलाया गया है कि लौकिक विद्याएँ मनुष्य को बुद्धि की कीचड़ में लथपथ कर देती हैं। आत्मा एक पवित्र ज़ौहर है और प्रेम एक पवित्र अंग है। संतो की आत्मा प्रेम से भरपूर रहती है।
लौकिक विद्या किसी प्रकार की निर्मलता उत्पन्न करने के बदले मनुष्य को बुद्धि की कीचड़ से लथेड देती है। लौकिक विद्याओं में आसक्ति उसे प्रायः धन-जन और मान- बड़ाई आदि अनित्य पदार्थों की चाह में और चतुरता अर्थात् दुनिया की चालाकियों में (जिनका परिणाम दुख होता है) लपेट देती है। लौकिक विद्याओं के प्रेमीयों को जब देखो वाचिक ज्ञान अर्थात् किताबी इल्म के जंगल में भटकते फिरते हैं और सिवाय पुस्तकों के पन्ने उलटने के उन्हें कुछ नहीं सोहाता हालाँकि इस कार्यशैली का परिणाम केवल थोड़ी देर के लिए बुद्धि- बिलास का रस है, और अंत में दुःखरूप संसार में चक्कर लगाना होता है।
उनको अपने चंचल मन की चतुराईयों और दौड़-धूप का कुछ भी पता नहीं चलता। वे मन ही को अपनी आत्मा समझ कर संतुष्ट रहते हैं और अंतर में एक क्षण भी स्थिर नहीं हो पाते। जब तक मनुष्य का मन चंचल रहता है उसकी चित्तवृतियाँ चलायमान रहती है और द्रष्टा वृति के समान रुप वाला रहता है अर्थात जिस समय वर्तमान वृत्ति का जो कुछ विषय होता है वही दृष्टान्तों अर्थात् जीवात्मा का स्वरूप रहता है।
और चित्तवृत्तियों के रूकने ही पर दृष्टा कि अपने निजी स्वरूप में स्थिति होती है (देखो पातंजल योग सूत्र २,३,४, समाधि पाद)। अथवा यों कहिये कि आत्मा का ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को आवश्यक है कि उसका मन निश्चल हो और उसकी वृति घट के भीतर स्थिर हो।
🙏🏻 राधास्वामी🙏🏻
यथार्थ प्रकाश -भाग दूसरा
-परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज!*
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