Tuesday, January 12, 2021

सारबचन

: १२-०१-२०२१  आज  शाम  के  खेतों   की  छुट्टी  के  समय  में  हुई  अनाउंसमेंट


ज़रूरी  सूचना


जिस  तरह  से  आज  आप  जल्दी  आए  हैं,  रोज  जल्दी  आएंगे  तो  आपको  धूप  मिलेगी। धूप  के  साथ - साथ  हवा  भी  मिलेगी  और  रोज  जल्दी  आएंगे  तो  आपको  और  सुपरमैन  स्कीम  के  बच्चों  को  भी  धूप   लेने  का  मौका  मिलेगा,  जिससे   विटामिन डी   मिलेगा, हड्डियां  मजबूत  होगी।


 राधास्वामी

 सारबचन (नसर)


(परम पुरुष पूरन धनी हुज़ूर स्वामीजी महाराज)


ख़ुलासा उपदेश हुज़ूर राधास्वामी साहब का


(पिछले दिन का शेष)


         20. दूसरे चक्र का मुक़ाम कंठ यानी गले में है। इस जगह सुरत यानी जीवात्मा का अक्स कंठ चक्र में ठहर कर स्वप्न की रचना दिखलाता है और विराट स्वरूप भगवान और आत्म पद बहुत से मज़हब और मतों का यही है। और देही के प्राण का स्थान भी यही है।


         21. तीसरा चक्र हृदय में है और दिल यानी पिंडी मन का यही स्थान है और शिव शक्ति की छाया का इस जगह पर बासा है। इस स्थान से इन्तिज़ाम यानी बंदोबस्त कुल पिंड का हो रहा है। पर मालूम होवे कि यहाँ पिंड यानी जिस्म से मतलब सूक्ष्म शरीर से है और संकल्प विकल्प सब इसी स्थान से पैदा होते हैं। रंज और ख़ुशी और ख़ौफ़ और उम्मेद और दुःख और सुख का भी असर इसी स्थान पर होता है।


         22. चौथा चक्र, नाभि कँवल। इस जगह पर विष्णु और लक्ष्मी का बासा है और परवरिश तन की इसी मुक़ाम से हो रही है और भंडार प्राण कसीफ़ यानी स्थूल पवन का इसी स्थान पर है।


         23. पाँचवाँ इंद्री कँवल। इस जगह पर ब्रह्मा और सावित्री का बासा है। पैदाइश जिस्म स्थूल की और उसकी ताक़त और काम वग़ैरह का ज़हूर इसी स्थान से है।


         24. छठवाँ गुदा चक्र। इस स्थान पर गणेश का बासा है और जोकि अगले वक़्त में प्राणायाम यानी अष्टांग योग का अभ्यास इसी मुक़ाम से शुरू किया जाता था, इस सबब से अव्वल यानी प्रथम पूजा मालिक छठे चक्र की, यानी गणेश जी की, हर काम में मुक़र्रर की गई।


         25. अब मालूम होवे कि यह सब स्थान उलवी और सिफ़ली अन्तर में हैं, बाहर के स्थानों से कुछ ग़रज़ नहीं है। दर्जात सिफ़ली गुदा चक्र से आँखों के नीचे तक ख़त्म हुए। इस वास्ते पिंड की हद आँखों तक है और इसी को नौ द्वार का पसारा भी कहते हैं। और वह नौ द्वार यह हैं- दो सूराख़ आँखों के, दो कानों के, दो सूराख़ नाक के, एक सूराख़ मुँह का, और एक सूराख़ इंद्री और एक सूराख़ गुदा का।


         26. आँखों के ऊपर मैदान सहसदलकमल का शुरू हुआ और यही शुरू ब्रह्मांड की है। और यह हद दसवें द्वार के नीचे तक ख़त्म हो जाती है, यानी स्थान प्रणव तक। और प्रणव के ऊपर पारब्रह्मांड कहलाता है। और मुताबिक़ संत मत के दर्जात सिफ़ली स्थूल सर्गुन में दाख़िल है और दो स्थान सहसदलकमल और त्रिकुटी के निर्मल सर्गुन कहलाते हैं और इसके परे का स्थान यानी सुन्न निर्गुन ख़ालिस कहलाता है और उसके पार देश संतों का शुरू होता है। इसी सबब से कहा गया है कि स्थान संतों का सर्गुन और निर्गुन के पार है और यही सबब है कि कृष्ण महाराज ने अर्जुन को उपदेश किया कि वेदों की हद से कि वह त्रिगुणात्मक यानी सर्गुन है पार हो, तब असल मुक़ाम पावेगा। और भेद और कैफ़ियत रचना वग़ैरह की और जो जो शक्ति और क़ुदरत कि इन सब स्थानों में रक्खी गई है बहुत से बहुत है। यह सब हाल सच्चे अभ्यासी को सतगुरु पूरे से मालूम होगा और अपने अभ्यास के वक़्त वह आप देखता जावेगा।


 

         27. अब इस बात को ज़ाहिर करना ज़रूर है कि जब पिछले साध और योगेश्वर और महात्माओं ने देखा कि भेद स्थान उलवी यानी आसमानी का बहुत बारीक है, हर एक की ताक़त उसके समझने की नहीं है और अभ्यास भी उसका प्राणायाम के वसीले से बहुत कठिन है, ख़ासकर पिछले वक़्त में जब कि सिवाय ब्राह्मणों के और किसी क़ौम को हुक्म मज़हबी किताबों के पढ़ने का नहीं था, तब उन्होंने अव्वल भेद सिर्फ़ स्थान सिफ़ली का प्रगट किया। और भेद स्थान उलवी को गुप्त रक्खा इस मतलब से कि रफ़्ते रफ़्ते जैसे अभ्यासी चढ़ता जावेगा, वैसे ही आगे का भेद उसको जताया जावेगा। पर यह मार्ग और उसका अभ्यास इस क़दर थक गया कि अभ्यासी स्थान सिफ़ली के भी बहुत कम मिले। फिर रफ़्ते रफ़्ते उस वक़्त के बुज़ुर्गों ने मसलहत वक़्त समझ कर कुल जीवों को, जो कि बिलकुल मूर्ख और अनजान थे, औतारों और देवताओं वग़ैरह की बाहरमुखी पूजा में लगाया, इस ख़्याल से कि यह नाम और रूप, जो असल में अंतरी मुक़ामों के थे, याद करके उनकी धारणा अव्वल बाहरमुखी करें और फिर अंतर में लगें। पर आम लोगों से यह काम भी दुरुस्त और पूरा न बना। तब बाज़े प्रेमियों ने वास्ते आसानी अभ्यास के बाज़े औतार और देवता दर्जे आला की मूरतें ध्यान करने के लिये और सुरत और दृष्टि ठहराने के वास्ते बनाई। मगर रोज़गारियों ने इस मौक़े को अपने मुफ़ीद मतलब देखकर मन्दिर और मूरतें बड़े बड़े औतार और देवताओं की धनवालों को तरग़ीब देकर यानी बहला और फ़ुसला कर बनवानी शुरू कीं और अपने रोज़गार के लिये उनकी पूजा बहुत ज़ोर और शोर के साथ जारी कराई और पुरानी किताबों को, जिनमें अभ्यास और उपासना का भेद लिखा था, गुप्त करना शुरू किया। इसी तरह पर आहिस्ता आहिस्ता पूजा औतार और देवताओं की मूरतों की आम जारी हो गई। और हाल यह है कि ऐसी पूजा करने में किसी को कुछ तकलीफ़ नहीं होती, हर एक शख़्स आसानी से कर सकता है। इस सबब से सब इसी काम में लग गये और अंतर का भेद रोज़ ब रोज़ गुप्त होता गया और सब के सब नक़ली परमार्थी होते चले गये और रफ़्ते रफ़्ते तमाम मुल्क में यही चाल जारी हो गई। और संसारी और भोगी लोगों को यह पूजा बहुत पसंद आई क्योंकि वे अपने मन के मुआफ़िक़ पूजा करने लगे और उसमें भी माया के भोग और बिलास का रस लेने लगे।


 

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