कबीर नौबत आपनी दिन दस लेहु बजाय ।
ए पुर पाटन ये गली बहुरि न मिलिहैं आई ।।
कबीर कोई ऐसा ना मिला जासों रहिए लागि ।
सब जग जलता देखिया अपनी - अपनी आगि ।।
मेरे प्रेमी भाईयों! इस चन्द रोज़ा दुनिया की रौनकें बस चार दिन की हैं । एक दिन बिछड़ना पड़ेगा ही । फिर यह दुनिया नहीं होगी, इस दुनिया में जुटाये गए सामान नहीं होंगे, रिश्ते - नाते, दोस्त - अहबाब, घर परिवार कोई नहीं होगा । एक तनहा जीव होगा तथा उसके कर्म होंगे जिसका हिसाब उसे हर हाल में चुकाना ही होगा । यहां एक आग लगी हुई है और सभी उस आग में अपनी राजी - खुशी जले जा रहे हैं, इससे बेखबर कि आने वाला वक़्त अपने दामन में उनके लिए क्या छिपाए हुए है ।
इस माया का बंधन महा मोहक तथा लुभावना है, इस बंधन की फांस कटे तब आस जगे । धरती जबसे क़ायम हुई वह परम दयालु परमात्मा अपने पाक और बर्ग़ुज़ीदह वन्दों को इन्सान की हिदायत के लिए भेजता रहा और मुअय्यन करता रहा लेकिन इन्सान है कि उनके कहे पर ध्यान नहीं देता । ऐसे लोगों का हादी ( हिदायत देने वाला, पथ प्रदर्शक ) जो भगवान को अपने से अलग जानते हैं तथा बाहर ढूंढ़ते हैं, शैतान है । वह मालिक कुल हर इन्सान के भीतर ही मौजूद है, जो ज़ात है ( सत्य, तत्त्व ) बाहर जो दुनिया का मेला है इसमें भी उसकी सिफ़ात है (गुण है ) । यह उसकी जल्वानुमाई है । इसीको मौलाना रूम रह०ने अपने एक शेर में व्यक्त किया है ।
होवल अव्वल होवल आख़िर होवल ज़ाहिर होवल बातिन
बजुज़ याहू व आमनहू कसे दीग़र न मी दानम
वही आदि है, वही अन्त है, वही प्रकट है और वही गुप्त भी है । जो बाहर है वही मेरे अन्दर भी है । मैं उसके अतिरिक्त किसी दूसरे को नहीं जानता ।
इसी को हज़रत शब्सतरी ने अपने एक शेर में मुख़्तलिफ अन्दाज़ में बयान किया है ।
तू आं जमई कि ऐने वहदत आमद
तू आं वाहिद कि ऐने कसरत आमद
तू वह मूल है जिससे सबकी उत्पत्ति होती है, तू वह ईकाई है जिससे समूह बनता है ।
और हम गफलत की नींद सो रहे हैं ।
मरने के फौरन बाद ही, बिना ताख़ीर के पता चल जाता है हमें, हमारा किया धरम - करम, पूजा - पाठ, रोज़ा - नमाज़, ध्यान - ज्ञान! वहीं हकीक़त समझ में आती है ।
गुरू अपने शिष्य के हृदय में प्रेम का बीज बो देता है । अब शिष्य की जिम्मेदारी है कि गुरू की निगहबानी में उस प्रेम के पौधे की ढंग से देख - रेख और जतन करे । यह प्रेम जब वृक्ष सरीखा मजबूत बन जाता है तब सारी बातें अपने - आप धीरे - धीरे जाहिर होने लगती हैं ।
बिनु गुरु भवनिधि तरई न कोई।
हरि बिरंचि शंकर सम होई।।
यदि कोई अपनी क्षमता में ब्रह्मा बिष्णु और शिव जैसा ही क्यों न हो, बिना गुरू के ज्ञान सम्भव नहीं । ऐसा गोसाईं जी अपनी रामायन में कहते हैं । यह मन जब तक कहीं लगेगा नहीं, ठहरेगा नहीं, और चंचल चित्त तथा भटकते मन से धरम - करम नहीं होते । केवल खामखयाली होती है ।
हज़रत जुनैद शाह बगदादी रह० फरमाते हैं
" अगर अल्लाह गैर हाजिर है तो उसका नाम लेना गीबत (परनिन्दा या चुगली ) है और हाजिर है तो उसका नाम लेना बेअदबी है।
कि ऐ लोगों! अब भी समय है जाग जाने का । बस जो कुछ भी कर रहे हैं करिये, एक चीज से बचे रहिए, दिलआज़ारी से, भूल कर भी किसी का दिल न दुखायें कि यह सबसे बड़ी इबादत है ।
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मालिक दयालु दया करे
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अदना गुलाम गुलाब शाह क़ादरी
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