हम ईश्वर की असीमता को तो पकड़ नहीं पाएंगे।*
*उचित यही है कि हम अपनी सीमा को जान लें।*
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एक दिन कौशल्या अम्बा बालक श्रीराम के लिए मालपुआ लाती हैं और भगवान जब स्वाद लेने लगे तो कागभुशुण्डिजी ने सोचा कि आज भी मालपुआ का प्रसाद प्राप्त होगा। पर प्रभु ने निर्णय किया कि नहीं आज तो मैं दूसरा ही प्रसाद दूंगा। तब भक्त और भगवान में एक अनोखा खेल प्रारम्भ हो गया।
कागभुशुण्डिजी प्रसाद पाने के लिए बड़े उत्साह से भगवान के पास गए पर ज्योंही वे पास गए, भगवान भाग खड़े हुए। जब मैं वहाँ से दूर चला गया तो *"चलउँ भागि तब पूप देखावहिं॥"* श्रीराम फिर मालपुआ दिखाने लगे। कागभुशुण्डिजी ने कहा कि मैं रूठकर वहाँ से जाने लगा कि जब आप बुलाकर भी नहीं देते हैं तो मैं जा रहा हूँ। किन्तु आज विचित्रता यह है कि *"आवत निकट हँसहिं प्रभु भाजत रुदन कराहिं।”* जब वे दूर जाने लगे तो भगवान रोने लगे। प्रभु का अभिप्राय था कि इतने दिन मैंने प्रसाद दिया पर अगर एक दिन नहीं दिया तो रूठ गए। किन्तु भाई ! मैं तो तुम्हारा सामीप्य चाहता हूँ।
उस दिन भगवान ने भुशुण्डिजी को भक्ति का प्रसाद न देकर ज्ञान का प्रसाद दिया। यद्यपि यह कहा जा सकता है कि भक्ति में जो रस है वह ज्ञान में तो नहीं है। कागभुशुण्डिजी भागते हैं तो भगवान अपनी भुजाओं को उन्हें पकड़ने के लिए फैला देते हैं। इस प्रकार भगवान ने कागभुशुण्डि जी के समक्ष विराट का एक तात्त्विक पक्ष प्रगट किया। वे जहाँ-जहाँ जाते हैं, सर्वत्र भगवान की भुजाओं का अनुभव करते हैं। पृथ्वी से लेकर ब्रह्मलोक तक सर्वत्र उन्होंने भगवान की भुजा अपने पीछे देखी। सर्वत्र भगवान की भुजा का तात्पर्य वेदान्त की मान्यता *‘भगवान सर्वत्र हैं'* का दर्शन कराना है। तुम यह न समझ लो कि मैं केवल अयोध्या में बैठा हुआ हूं, अन्यत्र नहीं हूँ। नहीं-नहीं मैं अयोध्या में भी हूँ, तथा अन्यत्र भी हूँ।
परन्तु मन में फिर संशय उत्पन्न होता है कि ईश्वर अगर सर्वव्यापक है तथा प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में बैठा हुआ है तब हम उस ईश्वर को पकड़ क्यों नहीं लेते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए प्रभु ने कागभुशुण्डिजी को दूसरा सूत्र दिया। उन्होंने कहा कि --
*ब्रह्मलोक लगि गयउँ मैं चितयउँ पाछ उड़ात ।*
*जुग अंगुल कर बीच सब राम भुजहिं मोहि तात ॥*
मैं जहाँ भी गया, सर्वत्र भगवान की भुजा थी पर दो अंगुल की दूरी जरूर बनी हुई थी। यही सत्य हम सबके लिए है। हमारे पास भी ईश्वर है। लाखों मील की यात्रा हम लोग कर लेते हैं पर यह दो अंगुल की दूरी बनी ही रह जाती है। वेदान्त की भाषा में कहें तो यह *'नाम'* और *'रूप'* दो अंगुल हैं। भक्तों की भाषा में कहें तो *'भक्त की इच्छा'* एक अंगुल और *'भगवान की कृपा'* दूसरा अंगुल और जब दोनों मिल जायँ तो भगवान प्राप्त हो जायें। भुशुण्डिजी प्रकृति के सातों आवरणों का भेदन कर सकते थे और उन्होंने किया भी --
*"सप्ता बरन भेद करि जहाँ लगे गति मोरि।*
*गयउँ तहाँ प्रभु भुज निरखि व्याकुल भयउँ बहोरि॥"*
अगर सचमुच पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश सबमें ईश्वर है तो चलिए हम उस ईश्वर को खोजें जितना खोज सकें। हम लोग तो पृथ्वी में भी पूरी खोज नहीं कर पाएँगे, आकाश, जल, वायु और अग्नि में भला कहाँ खोज करेंगे पर भुशुण्डिजी के चरित्र में यह संकेत मिला कि उन्होंने सर्वत्र ईश्वर का साक्षात्कार किया। लेकिन दूरी नहीं मिटी । अन्त में *'मूंदेउँ नयन'* उन्होंने आँखें मूंद लीं।
यह *'आँख मूंद लेना'* रामायण की एक सांकेतिक भाषा है। आँखें वस्तुतः बुद्धि का प्रतीक हैं । आँखों को हम बड़ा महत्व देते हैं। जो बातें हमें आँखों से दिखाई देती हैं उन्हें हम प्रामाणिक मानते हैं। यही बात बुद्धि के सम्बन्ध में भी है। लेकिन प्रश्न यह है कि बुद्धि असीम है या ससीम ? कागभुशुण्डिजी को यह ज्ञात हुआ कि *हम ईश्वर की असीमता को तो पकड़ नहीं पाएंगे। उचित यही है कि हम अपनी सीमा को जान लें।* नेत्र मूंदने का अभिप्राय है कि वे अपनी सीमा को जान गए । बस यहीं ईश्वर से मिलने का उपाय है। रामायण की मान्यता भी यही है कि
*तुमहिं आदि खग मसक प्रयंता।*
*नभ उड़ाहिं नहिं पावहिं अंता।।*
🦅 जय गुरुदेव जय सियाराम 🙏
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