*🌹" ठाकुरजी की अष्टयाम सेवा"🌹🙏🏻*
अष्टयाम सेवा का अर्थ है भगवान की आठों पहर की सेवा। आठों पहर अर्थात पूरे दिन सिर्फ ठाकुरजी की 'सेवा का भाव' और कुछ नहीं। ब्रज में ठाकुरजी के बाल स्वरूप की सेवा होती है, अतः आठों पहर की सेवा का भाव भी उसी के अनुरूप ही होता है। प्रातःकाल से शयन समय तक- मंगला, श्रृंगार, ग्वाल, राजभोग, उत्थापन, भोग, आरती और शयन। अष्टयाम सेवा इन्हीं भावों में विभक्त है।
"मंगला भाव की सेवा"
प्रातः उठते ही मंगल कामना मानव मात्र करता है, जिससे दिनभर आन्नद में बीते। ग्रन्थों के आरंभ में मंगलाचरण होता है, इसलिए प्रथम दर्शन का नाम मंगला रखा है। इस दर्शन की झांकी से पहले श्रीकृष्ण को जगाया जाता है, उसके बाद मंगल भोग (दूध, माखन, मिश्री , बासून्दी, आदि) धराया जाता है, फिर आरती की जाती है। यशोदा मैया परिसेवित श्रीकृष्ण के मंगला दर्शन को इस प्रकार निरूपण किया जाता है, बाल कृष्ण यशोदा मैया की गोद में बिराजमान है। माँ उनके मुख कमल का दर्शन कर रही है, मुख चूम रही है, नंदबाबा आदि प्रभु को गोद में लेकर लाड़ लड़ा रहे हैं। श्याम-सुन्दर के सखा बाल गोपाल गिरधर गुणों का गान कर रहे हैं, ब्रजगोपियां अपने रसमय कटाक्ष से उनकी सेवा कर रही है। नन्दनन्दन कलेवा कर रहे हैं, प्रभु की मंगला आरती हो रही है। प्रभु मिश्री और नवनीत का रसास्वादन कर रहे हैं।
"श्रृंगार भाव की सेवा"
माता यशोदा अपने बाल गोपाल का समयानुकूल ललित श्रृंगार करती है। उबटन लगाकर स्नान कराती है। श्यामसुन्दर को पीताम्बर धारण कराती है। ब्रजसुन्दरी गण और भक्त उनका परम रसमय दर्शन करके अपने आपको धन्य मानते हैं। प्रभु यशोदा माँ की गोद में विराजमान है, करमें वेणु और मस्तक पर मयूर पंख की छवि मनोहारिणी है। कही लाला के नजर न लग जाय की भावना से काजल का टीका लगाती है। श्रृंगार नित्य में सामान्य होते हैं किन्तु उत्सव महोत्सव मनोरथादि पर भारी एवं विभिन्न आभूषणों को धराया जाता है। श्रृंगार चार प्रकार की भावना के कहे जाते है। कटि पर्यन्त, मध्य के, छेड़ा के, और चरणारविन्दनार्थ। इनमें आभूषण ऋतुनुसार धराये जाते हैं। उष्णकाल में मोती - फाल्गुन में सुवर्ण तथा दूसरी ऋतु में रत्न जटित।
"ग्वाल भाव की सेवा"
श्री कृष्ण ग्वाल बालों की मंडली के साथ गोचारण लीला में प्रवृत होते हैं, माँ सीख देती है कि-''हे लाल गोपाल'' वन ओर जलाशय की और न जाना, बालकों के साथ लड़ना मत, कांटो वाली भूमि पर न चलना और दौडती गायों के सामने मत दौडना। प्रभु बाल गोपालों को साथ-लेकर गोचारण जा रहे हैं, 'वेणु बजाकर प्रभु गायों को अपनी और बुला रहे हैं, प्रभु के वेणु वादन से समस्त चराचर जीव मुग्ध हैं, श्री कृष्ण की ग्वाल मंडली नृत्य, गीत आदि पवित्र लीला में तल्लीन है, प्रभु का गोचारण कालीन ग्वाल वेष धन्य है। अपने श्रृंगार रस के भावात्मक स्वरूप से श्रीकृष्ण गोपियों का धैर्य हर लेते हैं। वेणुनाद सुनकर सरोवर में सारस, हंस आदि मौन धारणकर तथा नयन मूंदकर तन्मय हो जाते हैं। वृंदावन की द्रुमालताएं मधु धारा बरसाती है। प्रभु श्रीकृष्ण लीला पूर्वक (इठलाते हुए) चल रहे हैं। ब्रज भूमि का मर्दन कर दुःख दूर कर रहे हैं। ग्वाल के दर्शन के सन्मुख कीर्तन नहीं होते है क्योकि सारस्वत कल्प की भावना के अनुसार श्री कृष्ण अपने बाल सखाओं के साथ खेलकर पुनः नन्दालय पधारते हैं तब माता यशोदा उन्हे दूध आरोगाती है इस दूध को घैया कहते हैं।
"राजभोग भाव की सेवा"
प्रभु के गोचारण की बात सोचकर यशोदा मैया चिन्ता कर रही है कि मेरे लाल ग्वाल बालों के साथ वन प्रांत में भूखे होगे। माता व्याकुल हो रही है किन्तु अत्यन्त प्रेम में गोपियों द्वारा अपने लाडले गोपाल कन्हैया के लिए सरस मीठे पकवान, विभिन्न प्रकार की स्निग्ध सुस्वादु सामग्री सिद्ध कर रही है और सारी सामग्री स्वर्ण और रजत पात्रों में सजाकर गोपियों के साथ प्रभु को आरोगने के लिए भिजवा रही है। माता गोपियों को सावधान कर रही है कि सामग्री अच्छी तरह रखना कही दूसरी मे न मिल जाय। गोपियां राजभोग नन्नदनन्दन के समक्ष पधाराती है प्रभु लीला पूर्वक कालिन्दी के तट पर बैठकर भोजन आरोग रहे है। यह दर्शन राजाधिराज स्वरूप में ब्रज से पधारने के भाव से है। इस दर्शन में प्रभु की झांकी के अद्भुत दर्शन होते है क्योंकि देवगण, गन्धर्वगण, अप्सराएं आदि ब्रज पधारते है। भोग धरे जाते है। गोप-गोपियों के आग्रह से लीला-बिहारी मदनमोहन गिरिराज पधार कर कन्द मूल फलादि आरोगते है। यह झांकी अद्भुत है। प्रभु वन प्रांत से घर आने को उत्सुक है।
"उत्थापन संध्या आरती के भाव की सेवा"
श्री कृष्ण मन्द-मन्द वेणु बजाते हुए वन से गायें चराते हुए लौट रहे हैं माता यशोदा पुत्र दर्शन की लालसा में व्याकुल होकर उनका पथ देख रही है। गोधूलि वेला में गोपाललाल की छवि रमणीय है। ब्रज गोपीकाएं प्रभु के चरणारविन्दनिहारती हैं, वेणु वादन सुनती हैं और सागर में निमग्न हो जाती हैं। माता यशोदा के हृदय में वात्सल्य उमड़ पड़ता है। प्रभु इस भाव में मुग्ध हो रहे हैं। यशोदा उनकी आरती उतारती है। माता के सर्वांग में स्वेद, रोमांच, कम्प और स्तम्भ दीख पड़ते हैं। वे कपूर, घी, कस्तुरी से सुगन्धित वर्तिका युक्त आरती अपने पुत्र पर वार रही है। संध्यार्ति मातृभाव से मानी जाती है। प्रभु वन में अनेक स्थानों पर घूमते हैं, खेलते हैं, अनेक स्थानों पर आपके चरण पड़ते हैं इसलिए नंदालय आते ही आरती उतारती है। त्रिकाल समय का वारषा उतारा ही संध्यार्ती मानी है।
"भोग, आरती व शयन भाव की सेवा"
यशोदा मैया अपने लाल को शयन भोग अरोगाने के लिए बुलाती है। आरोगने की प्रार्थना (मनुहार) करती है। कहती है - 'हे पुत्र मैने अनेक प्रकार की सरस सामग्री सिद्ध की है, सोने के कटोरे में नवनीत मिश्री भी प्रस्तुत हैं। प्रभु आरोगते है। प्रभु इसके बाद दुग्ध धवल शय्या पर शयन के लिए बिराज मान होते हैं, माता यशोदा उनकी पीठ पर हाथ फेर कर सो जाने के लिए अनुरोध करती है और उनकी लीलाओं का मधुर गान करती है। माता अपने लाल को निद्रित जानकर अपने पास सखी को बैठाकर अपने कक्ष में चली जाती है। सखियों का समूह दर्शन करके निवेदन करता है कि श्रीस्वामिनी आपकी बाट देख रही है। शय्या आदि सजाकर प्रतीक्षा कर रही है। श्रीस्वामिनी जी की विरहवस्था का वर्णन सुनकर श्री राधारमण शय्या त्याग कर तुरन्त मन्द - मन्द गति से चले आते है। कारोड़ो कामदेवों के लावण्य वाले मदनाधिक मनोहर श्यामसुन्दर सखियों के बताये मार्ग पर धीरे - धीरे चलने लगे। धीरे - धीरे मुरली बजाते वे केलि मन्दिर में प्रवेश करते हैं। यह बड़ी दिव्य झांकी है।
दर्शन भावना के साथ ही दर्शन महिमा का माहत्म्य है। मंगला के दर्शन करने से कंगाल नहीं होते कभी। श्रृंगार के दर्शन करने से स्वर्ग लोक मिलता है। ग्वाल के दर्शन करने से प्रतिष्ठा बनी रहती है। राजभोग के दर्शन करने से भाग्य प्रबल होता है। उत्थापन के दर्शन करने से उत्साह बना रहता है। भोग के दर्शन करने से भरोसा बना रहता है। आरती के दर्शन करने से स्वार्थ न रहे कभी। शयन के दर्शन करने से शान्ति बनी रहती है।
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