**राधास्वामी!!19-01-2021- आज शाम सतसंग में पढे गये पाठ:-
(1) कोई कछु कहे मैं नेक न मानूँ। मेरा गुरु चरनन मन लागा री।। (प्रेमबानी-4-शब्द-8- पृ.सं.87,88)
(2) सजन प्यारे मन की घुंडी खोल।।टेक।। जब लग मन की खुले न घुंडी। समझ न आवें सतसंग बोल।।-(जब लग लागी घुंडी तेरे। जनम जाय तेरा नाप और तोल।।)
(प्रेमबिलास-शब्द-128-पृ.सं.187)
(3) यथार्थ प्रकाश-भाग दूसरा-
कल से आगे।।
🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**
**राधास्वामी!! / 19-01-2021-
आज शाम सत्संग में पढ़ा गया बचन-
कल से आगे-( 123)-
पूर्वोक्त चारों कड़ियों का अर्थ समझ में आते ही हमें तत्काल योगदर्शन के साधन पाद का पाँचवा सूत्र स्मरण हो आता है। मूल सूत्र यह है:-
अनित्याशुचिदुः खानात्मसनित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या। इस पवित्र
वाक्य का अर्थ यह है कि अनित्य (नाशमान), अपवित्र, दुःख, और अनात्म अर्थात जड में नित्य,पवित्र, सुख और आत्मा का ज्ञान अविद्या है । अर्थात पतंजलि महाराज के मतानुसार जो विद्या या ज्ञान नाशमान को अविनाशी, अपवित्र को पवित्र, दुःखदायक को सुखदायक और शरीर, इंद्रिय और चित्त को, जोकि अनात्म अर्थात अपने स्वरूप से पृथक् वस्तुएँ है, अपनी आत्मा अर्थात स्वरूप दरसावे, वह अविद्या है ( देखो पातंजल योगदर्शन, पंडित राजाराम साहब, प्रोफ़ेसर डी०ए०वी० कॉलेज, का अनुवाद पृष्ठ ६४)
( 124)- अब यदि जैसा की पुस्तक सारबचन की पूर्वोक्त 4 कड़ियों में वर्णन हुआ, लौकिक विद्याओं का परिणाम साधारणतया संसार में यही हो रहा है कि लोग अनित्य, अपवित्र, दुःखदायक पदार्थों को नित्य, पवित्र,और सुखदायक और अनात्मा को आत्मा समझते हैं , तो इस सूत्र में वर्णित परिभाषा के अनुसार लौकिक विद्याएँ अविद्या ठहरी या क्या? और यदि राधास्वामी- मत के प्रवर्तक ने अपने उपदेश में लौकिक विद्याओं को अविद्या ठहराया और अविद्या शब्द को पतंजलि मुनि के योगदर्शन के पारिभाषिक अर्थ में प्रयुक्त किया तो उनका यह उपदेश सर्वथा शास्त्रोंक्त ठहरता है उसका शास्त्रों में कुछ और? और यदि अज्ञ्यजन इस उपदेश को अनुचित ठहराते है तो उसका शास्त्रों में विश्वास रखना निरीक्षक और निष्फल ही है। 🙏🏻राधास्वामी🙏🏻
यथार्थ प्रकाश- भाग दूसरा- परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज!**
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