भस्म से नहाया एक दूल्हा
शादी और दूल्हे की जब भी बात चलती है, दिमाग में महीनों पहले की खरीदारी, नए कपड़े, जेवर, श्रृंगार, सजावट की तस्वीरें कौंधने लगती है। मगर सनातनी संस्कृति में एक दूल्हा ऐसा भी है, जिनके विवाह जैसा उत्सव आज तक किसी का नहीं मना। अनंत काल से हम उसे मनाते आ रहे हैं और अपना अस्तित्व रहने तक मनाते रहेंगे। जबकि उस विवाह में लौकिक आचरण से मेल खाता कुछ भी नहीं था।
तो फिर आखिर ऐसा क्या है, इस विवाह में जो सदियों से हमें उल्लासित करता आ रहा है और आने वाले तमाम वर्षों तक हमारे रोम-रोम में ऊर्जा, उष्मा और श्रद्धा का संचार करता रहेगा? जितना ढूंढने की, पढ़ने, समझने और महसूस करने की कोशिश करते हैं, उतना ही डूब जाते हैं, उल्लास से भर उठते हैं, श्रद्धा से नतमस्तक हो जाते हैं।
क्या ही बिरला विवाह है… एक तरफ हिमालय राज की पुत्री, राजकुमारी पार्वती और दूसरी तरफ श्मशान वासी, कैलाश पर विराजने वाले भोलेनाथ। एक सर्वोच्च ऐश्वर्य की प्रतिमूर्ति और एक वैराग्य का चरमोत्कर्ष। दो ऐसे ध्रुव, जिनका मिलन सामान्य दृष्टि से तो असंभव ही लगता है। भौतिक रूप से दोनों में कोई मेल नहीं है। अजन्मे शिव के साथ कुंडली मिलाने, घर-परिवार देखने-जांचने जैसा कोई सुभिता भी इस विवाह में नहीं है, जिससे किसी दृष्टि, किसी कोण से दोनों में जोड़ बिठाई जा सके। किसी तरह के सांसारिक सुख की कोई संभावना भी कहीं नजर नहीं आती। फिर वही सवाल लौटकर आ जाता है कि फिर इस बेमेल विवाह में ऐसा क्या है?
यह सवाल तब और बड़ा हो जाता है जब सती से विछोह के बाद शिव का वैराग्य अपने प्रगाढ़तम स्वरूप में सामने आता है। शिव खुद में डूबे हैं, वहां से लौटने की कोई इच्छा, अभिलाषा, लेशमात्र भी कहीं नहीं है। नंदी भी बाहर हैं और सारे गण भी बेदखल हैं। देवता जरूर विकल हैं, क्योंकि उन्हें सृष्टि की रक्षा और संचालन के लिए शिव की आवश्यकता है। उन्हें पुन: गृहस्थ जीवन में प्रवेश कराने की आतुरता है, क्योंकि शिव और शक्ति के बिना संसार का कल्याण संभव नहीं है। मगर शिव ने मन का किंवाड़ इस तरह बंद कर लिया है कि रोशनी की कोई किरच भी भीतर नहीं जा सकती।
वे भले आशुतोष हैं, लेकिन गृहस्थी बसाने के लिए उन्हें मनाना क्या इतना आसान था। कितने जतन नहीं किए गए, मगर शिव टस से मस नहीं हुए। मां पार्वती की आराधना कठोर से कठोरतम होती गई। शिव को पाने के लिए वे अपर्णा हो गईं। कामदेव महादेव के तीसरे नेत्र के भाजन बने। रति को उनके विछोह का कष्ट सहना पड़ा। पर फिर भी कोई बात थी जो शिव को समाधि से बाहर लेकर आई।
वह मां पार्वती का तप था, सृष्टि के संरक्षण का महत्तर उद्देश्य या फिर समस्त देवताओं और चराचर जगत का आग्रह, जिसने शिव को राजी कर लिया। मगर वे विवाह के लिए तो फिर भी सहजता से तैयार नहीं हुए। अथक और अहर्निश तप से कुंदन होने के बावजूद मां पार्वती की कड़ी परीक्षा ली।
यही इस विवाह के अमरत्व का आदि कारण है। विवाह का उद्देश्य ही इसके पीछे के तमाम उत्सवों के मूल में है। क्योंकि यह दो लोगों के सुख आदि की कामना से नहीं बल्कि लोक कल्याण के लिए किया गया। जिसके पीछे मां पार्वती की लंबी साधना और तपस्या है तो माता सती से विछोह के बाद और प्रगाढ़ हुए शिव का वैराग्य है। सृष्टि के संतुलन के लिए शिव गृहस्थ धर्म अपना तो लेते हैं, लेकिन वैराग्य का किंचित भी त्याग नहीं करते। और मां पार्वती अपने राज ऐश्वर्य के साथ वैराग्य को संतुलित करती है। क्या खूब ही दर्शन है, आधा हिस्सा ऐश्वर्य है, आधा वैराग्य और दोनों में बेजोड़ संतुलन। वैराग्य और गृहस्थ का यह संतुलन बन जाए, शिव और शक्ति का साम्य हो जाए तो फिर क्या बाकी रह जाएगा। इससे बड़ा कोई संदेश पीढ़ियों के लिए क्या हो सकता है।
सनातन धर्म में और भी देवी-देवताओं, महापुरुषों, ऋषि-मुनियों, राजा-महाराजाओं के विवाह का वर्णन मिलता है। भगवान राम, कृष्ण से लेकर लंबी फेहरिस्त है, लेकिन किसी विवाह में खुशियों का ऐसा झरना नहीं फूटा कि लाखों वर्षों बाद भी वह इस तरह लोगों को आनंदित करता रहे। साल दर साल उन्हें विवाह संस्कार की प्रतिष्ठा और महत्ता से अवगत कराता रहे। समाज की धुरी गृहस्थ आश्रम की मर्यादा और अनुशासन का बोध कराता रहे।
महाशिवरात्रि महज शिव और पार्वती के विवाह का उत्सव नहीं बल्कि हमारी संस्कृति, सभ्यता, आदर्श, सामाजिक सिद्धांतों और लोक व्यवहार का महोत्सव है। जो हर साल हमें अपने मूल्यों पर टिके रहने की प्रेरणा देता है।
गृहस्थ धर्म में रचे-बसे प्रेम के अकूत धन से सराबोर कर देता है।
जीवन को नई दृष्टि, नई दिशा देता है।
महाशिवरात्रि की शुभकामनाएं… शिव और मां पार्वती के विवाह का यह उत्सव हमारे जीवन का स्थाई भाव हो जाए।
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