*कुंडलिनी जागरण के सात ऊर्जा चक्र...*प्रस्तुति पं0कृष्ण मेहता
. सम्पूर्ण जानकारी..
विषय बहुत लम्बा है रुचि हो तो पढ़ ले..
..आध्यात्मिक राह वालों के लिए वरदान है..
मूलाधार या मूल चक्र ( आधार चक्र )
कुंडलिनी जागरण के सात चक्र में से ये चक्र पहला चक्र है । यह जननेन्द्रिय और मलद्वार के बीच स्थित होता है । स्त्रियों में यह गर्भाशय-ग्रीवा के पीछे स्थित होता है । जहां योनि गर्भाशय से मिलती है । इस स्थान पर एक ब्रह्म ग्रंथि स्थित होती है । जो ब्रह्मा की द्योतक होती है । इसका रंग लाल होता है । द्वितीयक रंग काला होता है । लाल रंग जीवन और भौतिक ऊर्जा का द्योतक है । मूलाधार चक्र चार पंखुड़ियों वाले कमल के फूल के समान दिखाई देता है । यह चतुर्भुज के आकार का होता है । जिसके अन्दर एक त्रिकोण ( योनि का प्रतिरूप ) होता है । त्रिकोण में एक शिवलिंग अवस्थित रहता है जिस पर सर्प के आकार की कुण्डलिनी लिपटी होती है । मूलाधार चक्र में चार नाड़ियां मिलती हैं । इसमें चार ध्वनियां – वं, शं, षं, सं होती हैं और यह ध्वनि मस्तिष्क और हृदय के भागों को कंपित करती हैं । शरीर का स्वास्थ्य इन्हीं ध्वनियों पर निर्भर करता है । यह एडरीनल ग्रंथि को नियंत्रित करता है ।
मूलाधार चक्र पृथ्वी, मातृभूमि, संस्कृति, जीवन से सम्बंधित है । यह ऊर्जा और जीवन का केन्द्र है । मूलाधार चक्र रस, रूप, गंध, स्पर्श, भावों व शब्दों का मेल है । यह अपान वायु का स्थान है तथा मल, मूत्र, वीर्य, प्रसव आदि इसी के अधिकार में हैं । इसको योग में विश्व निर्माण का मूल माना गया है । यही चक्र हमारी दिव्य शक्ति का विकास, मानसिक विकास, और चैतन्यता का मूल स्थान भी है । मूलाधार को स्वस्थ रखने के लिए सांसारिक व आध्यात्मिक शक्ति के बीच तालमेल बनाए रखना चाहिये । शारीरिक रूप से मूलाधार काम-वासना को, मानसिक रूप से स्थायित्व को, भावनात्मक रूप से इंद्रिय सुख को और आध्यात्मिक रूप से सुरक्षा की भावना को नियंत्रित करता है । यह प्रवृत्ति, रक्षा, अस्तित्व और मानव की मौलिक क्षमता से संबंधित है । यह चक्र भय, क्रोध, संताप, लालसा और अपराध-बोध से भी सम्बंधित है । यह स्वर्ग और नर्क दोनों का द्वार है ।
मूलाधार चक्र कुण्डलिनी शक्ति, मानव जीवन की परम चैतन्य शक्ति मानी गई है । ब्रह्माण्ड के निर्माण में आवश्यक सभी तत्व मनुष्य के अन्दर कुण्डलिनी शक्ति के रूप में मौजूद होते हैं । योग क्रिया द्वारा इस शक्ति को जागृत कर अपने अन्दर अदभुत शारीरिक और आध्यात्मिक शक्ति का अनुभव किया जा सकता है । इस चक्र के देवता गणेश और बीज मंत्र ' लं ' है ।
इसका संतुलन बिगड़ने पर रक्त-अल्पता, थकावट, पीठ के निचले हिस्से में दर्द, शियेटिका, अवसाद, सर्दी, हाथ-पैर ठंडे रहना आदि रोग होते हैं)
स्वाधिष्ठान का मतलब स्व ( स्वयं ) + अधिष्ठान ( स्थापित होना ) है । तात्पर्य यह है कि मनुष्य के सभी संस्कार इसी चक्र में स्थित रहते हैं । मस्तिष्क में इनका प्रतिरूप अवचेतन मन है । स्वाधिष्ठान चक्र त्रिकास्थि के निचले हिस्से में मूलाधार से दो अंगुल ऊपर अवस्थित रहती है । इसमें 6 पंखुड़ियों वाला कमल होता है । इस चक्र में 6 नाड़ियां आपस में मिल कर 6 पंखुड़ियों वाले कमल के फूल की रचना करती हैं । जो दल का द्योतक है । फूल के भीतर अलग-अलग आकार के दो वृत्तों से बना सफेद अर्द्ध चन्द्र स्थित होता है । इसका आकार गोल और रंग नारंगी होता है । अर्द्ध चन्द्र इसका यंत्र है । इस चक्र में ध्वनियां बं, भं, मं, यं, रं, लं आती रहती हैं ।
स्वाधिष्ठान चक्र अवचेतना और भावना से सम्बंधित है । यह मूलाधार चक्र से सम्पर्क रखता है । स्वाधिष्ठान चक्र में संस्कार सुषुप्त रहते हैं और मूलाधार में वे अभिव्यक्त होते हैं । विज्ञान के अनुसार मस्तिष्क हमारे सारे अनुभव और संवेदनओं का विश्लेषण किये बिना अवचेतन प्रकोष्ठों में संचित करता रहता है । कुण्डलिनी जागरण की प्रक्रिया में यह चक्र एक बड़ी बाधा बनता है क्योंकि अवचेतन मन में पड़ी ये संवेदनाएं और कर्म कुण्डलिनी को जागृत नहीं होने देता और वह बार-बार मूलाधार में जाकर सुषुप्त हो जाती है ।
इस चक्र का संबन्ध स्वाद, जन्म, परिवार और भावना से है और यह जल तत्व प्रधान है । इसलिए यह रक्त, मूत्र, वीर्य, योनि स्राव, और लसिका से सरोकार रखता है । यह चक्र जिव्हा, जननेन्द्रियों, अंडकोष, वृषण, वृक्क और मूत्राशय का नियंत्रण करता है । इस चक्र से ही प्रजनन क्रिया सम्पन्न होती है तथा इसका संबन्ध सीधे चन्द्रमा से है । इसी चक्र के कारण मन की भावनाएं प्रभावित होती हैं । स्त्रियों में मासिकधर्म चन्द्रमा से सम्बंधित है और इनका नियंत्रण स्वाधिष्ठान चक्र से होता है । इसी के द्वारा मनुष्य के आंतरिक और बाहरी संसार में समानता स्थापित करने का कौशिश करता है तथा व्यक्तित्व का विकास होता है । इस चक्र का ध्यान करने से मन शान्त, निर्मल व शुद्ध होने लगता है । आन्तरिक शत्रु जैसे वासना, क्रोध, लालच आदि का नाश हो जाता है तथा धारणा और ध्यान की शक्ति प्राप्त होती है । इसके देवता श्री ब्रह्मा और सरस्वती हैं । इसका बीज मंत्र 'वं ' है ।
इसका संतुलन बिगड़ने पर मदिरा और नशीले पदार्थों का व्यसन, अवसाद, पीठ के निचले हिस्से में दर्द, अस्थमा या ऐलर्जी, फंगस का संक्रमण, मूत्र विकार, कामुकता विकार, नपुंसकता और कामशीतलता आदि रोग होते हैं ।
मणि पूरक चक्र...मणि = गहना
पुर = स्थान, शहर
मणिपुर चक्र नाभि के पीछे स्थित है। इसका मंत्र है रम। जब हमारी चेतना मणिपुर चक्र में पहुंच जाती है तब हम स्वाधिष्ठान के निषेधात्मक पक्षों पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। मणिपुर चक्र में अनेक बहुमूल्य मणियां हैं जैसे स्पष्टता, आत्मविश्वास, आनन्द, आत्म भरोसा, ज्ञान, बुद्धि और सही निर्णय लेने की योग्यता जैसे गुण।
मणिपुर चक्र का रंग पीला है। मणिपुर का प्रतिनिधित्व करने वाला पशु मेढ़ा (मेष)है। इसका अनुरूप तत्त्व अग्नि है, इसलिए यह 'अग्नि' या 'सूर्य केन्द्र' के नाम से भी जाना जाता है। शरीर में अग्नि तत्त्व सौर मंडल में गर्मी के समान ही प्रकट होता है। मणिपुर चक्र स्फूर्ति का केन्द्र है। यह हमारे स्वास्थ्य को सुदृढ़ और पुष्ट करने के लिए हमारी ऊर्जा नियंत्रित करता है। इस चक्र का प्रभाव एक चुंबक की भांति होता है, जो ब्रह्माण्ड से प्राण को अपनी ओर आकर्षित करता है।
पाचक अग्नि के स्थान के रूप में, यह चक्र अग्न्याशय और पाचक अवयवों की प्रक्रिया को विनियमित करता है। इस केन्द्र में अवरोध कई स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बन सकते हैं, जैसे पाचन में खराबियां, परिसंचारी रोग, मधुमेह और रक्तचाप में उतार-चढ़ाव। तथापि, एक दृढ़ और सक्रिय मणिपुर चक्र अच्छे स्वास्थ्य में बहुत सहायक होता है और बहुत सी बीमारियों को रोकने में हमारी मदद करता है। जब इस चक्र की ऊर्जा निर्बाध प्रवाहित होती है तो प्रभाव एक शक्तिपुंज के समान, निरन्तर स्फूर्ति प्रदान करने वाला होता है - संतुलन और शक्ति बनाए रखता है।
मणिपुर चक्र के प्रतीक चित्र में दस पंखुडिय़ों वाला एक कमल है। यह दस प्राणों, प्रमुख शक्तियों का प्रतीक है जो मानव शरीर की सभी प्रक्रियाओं का नियंत्रण और पोषण करती है। मणिपुर का एक अतिरिक्त प्रतीक त्रिभुज है, जिसका शीर्ष बिन्दु नीचे की ओर है। यह ऊर्जा के फैलाव, उद्गम और विकास का द्योतक है। मणिपुर चक्र के सक्रिय होने से मनुष्य नकारात्मक ऊर्जाओं से मुक्त होता है और उसकी स्फूर्ति में शुद्धता और शक्ति आती है।
इस चक्र के देवता विष्णु और लक्ष्मी हैं। भगवान विष्णु उदीयमान मानव चेतना के प्रतीक हैं, जिनमें पशु चारित्रता बिल्कुल नहीं है। देवी लक्ष्मी प्रतीक है-भौतिक और आध्यात्मिक समृद्धि की, जो भगवान की कृपा और आशीर्वाद से फलती-फूलती है।
।अनाहत चक्र ( हृदय चक्र )
यह अनाहत नाद का स्थल है । अनाहत का अभिप्राय है । जिसे घायल नहीं किया जा सके । अनाहत नाद वह सूक्ष्म आकाशीय स्वर है जिसे एक अनुभवी साधक तभी सुन पाता है, जब वह ध्यान में विशिष्ट ऊंचाई पर पहुंचता है । अनाहत चक्र उरोस्थि के पीछे हृदय के पास स्थित होता है । इस चक्र में 12 पंखुड़ियां वाला कमल होता हैं । इस स्थान पर 12 नाड़ियां मिल कर 12 पंखुड़ियों वाले कमल के फूल की आकृति बनाती हैं । इसका चिन्ह दो त्रिकोण हैं । एक नीचे इंगित करता है तो दूसरा ऊपर इंगित करता है । यह मध्य चक्र है । अर्थात तीन चक्र इसके ऊपर और तीन चक्र इसके नीचे होते हैं । इसका रंग हरा होता है, द्वितीयक रंग गुलाबी है । इसका व्यास छः सेंटीमीटर का होता है । इस चक्र से ध्वनियां कं, खं, गं, घं, डं, चं, छं, जं, झं, ञं, टं, ठं निकलती हैं । यह स्रावी ग्रंथि से सम्बंधित है और हृदय, फेफड़े, रक्त, वेगस नाड़ी और परिवहन तंत्र को नियंत्रण करता है । यदि यह निर्मल और नियमित लय में है तो व्यक्ति का हृदय स्वस्थ रहता है । शरीर की रक्षाप्रणाली भी इसी के अधीन रहती है । यह चक्र प्राणवायु का स्थान है और यहीं से वायु नासिका द्वारा अन्दर व बाहर होती रहती है । प्राणवायु शरीर की कई मुख्य क्रियाओं का संपादन करती है । जैसे वायु को सभी अंगों तक पहुंचाना, अन्न-जल को पचाना, उसके रस बना कर सभी अंगों में प्रवाहित करना, वीर्य बनाना, पसीने और मूत्र के द्वारा उत्सर्जी तत्वों को बाहर निकालना आदि । इस चक्र में वायु प्रधान है । अनाहत चक्र पर ध्यान करने से मनुष्य, समाज और स्वयं के वातावरण में सुसंगति एवं संतुलन स्थापित करता है । इस पर ध्यान करने से मनुष्य को सभी शास्त्रों का ज्ञान होता है तथा वाकपटु, संसार के जन्म-मरण के विषय में ज्ञान होता है । ऐसे मनुष्य ज्ञानियों में श्रेष्ठ, काव्यमृत रस के आस्वादन में निपुण योगी तथा अनेक गुणों से युक्त होते हैं ।
यह चक्र दिव्य प्रेम का केन्द्र है और आध्यात्मिकता का द्वार है । समर्पण की भावनाएं यहीं जन्म लेती हैं । भावनात्मक आसक्ति व लगाव से सम्बंधित विष्णु ग्रंथि यहीं अवस्थित होती है । जब यह ग्रंथि खुल जाती है तो व्यक्ति स्वार्थ तथा भावनात्मक अस्थिरता से मुक्त हो जाता है तथा हृदय निर्मल, निष्काम, निःस्वार्थ और ईश्वरीय दिव्य प्रेम रस में डूब जाता है ।
इस चक्र के प्रधान वाले लोग समाजसेवी तथा दूसरों का निर्वाह करने वाले होते हैं । इनमें स्पर्श या अपनी ऊर्जा द्वारा दूसरों के कष्ट दूर करने की क्षमता विकसित हो जाती है । इस चक्र के जागृत होने से लोगों में आध्यात्मिक और टेलीपैथी जैसे गुणों का विकास होता है । इस चक्र की देवी श्री जगदम्बा माँ हैं और बीज मंत्र ' यं ' है ।
इसका संतुलन बिगड़ने पर हृदय और श्वास रोग, स्तन कैंसर, छाती में दर्द, उच्च रक्तचाप, रक्षाप्रणाली विकार आदि रोग होते हैं ।विशुद्ध चक्र ( कंठ चक्र )
यह कंठ में स्थित होता है । इसमें 16 पंखुड़ियों वाला कमल होता है । यहां 16 नाड़ियां मिल कर कमल के फूल की आकृति बनाती हैं । इसका रंग आसमानी होता है और चिन्ह अर्द्धचंद्र है । इसका व्यास छः सेंटीमीटर होता है । लेकिन अपनी स्वर-यंत्र का प्रयोग करने वाले लोगों जैसे गायक व अध्यापक आदि में यह बड़ा हो जाता है । इस चक्र में अ से अः तक 16 ध्वनियां निकलती हैं । यह थायरॉयड अंतःस्रावी ग्रंथि से सम्बंधित है । यह थायरॉयड, स्वर-यंत्र, फेफडे, श्वास-नलिका पथ और आहार तंत्र को नियंत्रित करता है ।
विशुद्ध चक्र संचार, संवाद और संप्रेषण का केन्द्र है । यह व्यक्ति को अपने अनुभवों के बारे में बोलने की तीव्र इच्छा शक्ति प्रदान करता है । यह चक्र श्रवण का भी केन्द्र है और मनुष्य के सुनने की शक्ति इतनी विकसित कर देता है कि वह कानों से ही नहीं मन से भी सुनने लगता है । यह मनोवैज्ञानिक दृष्टि से रचनात्मकता, आत्मानुशासन, दायित्व और नेतृत्व का विकास करता है । इस चक्र का ध्यान करने से मनुष्य के रोग, दोष, भय, चिंता, शोक आदि दूर होते हैं और वह लम्बी आयु को प्राप्त करता है । यह चक्र शरीर निर्माण के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है । क्योंकि यह चक्र आकाश तत्व प्रधान है और शरीर जिन 5 तत्वों से मिलकर बनता है । उसमें एक तत्व आकाश भी होता है । आकाश तत्व शून्य है तथा इसमें अणु का कोई समावेश नहीं है ।
मानव जीवन में प्राणशक्ति को बढ़ाने के लिए आकाश तत्व का अधिक महत्व है । यह तत्व मस्तिष्क के लिए आवश्यक है और इसका नाम विशुद्ध रखने का कारण यह है कि इस तत्व पर मन को एकाग्र करने से मन आकाश तत्व के समान शून्य और शुद्ध हो जाता है । इस चक्र में बाहरी और आंतरिक विषों को निष्क्रिय करने की क्षमता होती है । यह चक्र पिछले कटु और नकारात्मक अनुभव को निकाल कर जीवन को परमानन्द से भर देता है । विशुद्ध चक्र जागृत होने पर यह मनुष्य में जीवन शक्ति, रचनात्मकता और सच्चा ज्ञान भर देता है । इस चक्र के देवता श्री कृष्ण राधा हैं और बीज मंत्र ' हं ' है ।
इसका संतुलन बिगड़ने पर थायरॉयड विकार, जुकाम और ज्वर, संक्रमण, मुंह, जबड़ा, जीव्हा, कंधा और गर्दन सम्बंधी रोग, उग्रता, हार्मोन विकार, मनोदशा विकार, रजोनिवृत्ति जनित रोग आदि रोग होते हैं ।
अजना या आज्ञा चक्र ( ललाट या तृतीय नेत्र )
अजना चक्र दोनों भौंहों के बीच स्थित होता है । इसमें 2 बड़ी पंखुड़िया वाले कमल का अनुभव होता है । इसकी दो पंखुड़ियां आत्मा-परमात्मा, तर्क-वितर्क, पिनियल-पिट्यूट्री, इड़ा-पिंगला और नर-नारी को इंगित करती है । सारी द्विविधता यहीं मिलती है । इसमे एक त्रिकोण है । जो योनि का द्योतक है । इस त्रिकोण में एक श्वेत लिंग है । इसका रंग गहरा नीला होता है ।
अजन का अभिप्राय आज्ञा या निगरानी करना है । इसे गुरू चक्र भी कहते हैं । यह शीर्ष ग्रंथि (Pineal) ग्रंथि से सम्बंधित है, जो मेलाटोनिन हार्मोन का स्राव करती है । यह हार्मोन सोने या जागने की क्रिया को नियंत्रित करता है । यह मस्तिष्क के निचले भाग, बाई आंख, कान, नाक, और नाड़ी तंत्र को नियंत्रित करता है । यहां दो ध्वनियां निकलती रहती हैं । इस स्थान पर पिनियल और पिट्यूट्री ग्रंथियां मिलती हैं । इसके जागरण का केन्द्र भौंहों के बीच का बिन्दु है जिसे ब्रह्माध्य कहते हैं । ध्यान, एकाग्रता और आत्मदर्शन के लिए यह बिन्दु बहुत विश्ष्ट है । इस पर ध्यान करने से सम्प्रभात समाधि की योग्यता आती है । मूलाधार से इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना अलग-अलग प्रवाहित होती हुई इसी चक्र पर मिलती हैं और चैतन्यता की एक धारा के रूप में सहस्रार को जाती हैं । इसलिए योग में इस चक्र को त्रिवेणी भी कहा गया है । योग ग्रंथ में इसके बारे में कहा गया है ।इड़ा भागीरथी गंगा पिंगला यमुना नदी ।
तर्योमध्यगत नाड़ी सुषुम्नाख्या सरस्वती ।।
इड़ा को गंगा, पिंगला को जमुना और सुषुम्ना नाड़ी को सरस्वती कहा गया है । इन नाड़ियों का जहां मिलन होता है, उसे त्रिवेणी कहते हैं । जब साधक गहरे ध्यान में होता है और उसकी सारी संवेदनाएं शून्य हो जाती हैं । तब अजना से सहस्रार तक जाने के निर्देश इसी चक्र से मिलते हैं । जो मनुष्य अपने मन से इन चक्रों पर ध्यान करता है । उसके सभी पाप नष्ट होते हैं और दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है । इस चक्र का सम्बंध जीवन को नियंत्रित करने से है ।
इसे शिव का तीसरा नेत्र कहते हैं । इसे अन्तर्ज्ञान का नेत्र भी कहते हैं । क्योंकि यह अन्दर देखता है । कुछ लोग इसे दिव्य-चक्षु कहते हैं । क्योंकि योगियों को ईश्वरीय अन्तरदृष्टि और श्रुतिप्रकाश इसी चक्र से मिलता है । यहीं पहुंच कर मनुष्य को मोक्ष का द्वार दिखाई देता है । यहीं चरमानन्द, अतिसंवेदन-बोध, सूक्ष्म दृष्टि, अतीन्द्रिय श्रवण, अन्तरज्ञान, असाधारण शक्तियां प्राप्त होती हैं । इसी छठे चक्र में मनुष्य को दूरबोध और पुनर्जन्म का ज्ञान होता है । आज्ञा चक्र मन और बुद्धि का मिलन स्थान है । यह उर्ध्व शीर्ष बिन्दु ही मन का स्थान है । इसे रुद्र ग्रंथि कहते हैं । सुषुम्ना मार्ग से आती हुई कुण्डलिनी शक्ति का अनुभव योगी को यहीं आज्ञा चक्र में होता है । योगाभ्यास व गुरू की सहायता से साधक कुण्डलिनी शक्ति को सहस्रार चक्र में विलीन करा कर दिव्य ज्ञान व परमात्मा तत्व को प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त करता है । संवेदनाओं और पांच तत्वों के परे छठा चक्र सूर्य और चन्द्रमा से प्रभावित होता है । इसकी धातुएं स्वर्ण और रजत हैं । इसका बीज मंत्र ' शं ' है ।
इसका संतुलन बिगड़ने पर थायरॉयड विकार, जुकाम और ज्वर, संक्रमण, मुंह, जबड़ा, जीव्हा, कंधा और गर्दन सम्बंधी रोग, उग्रता, हार्मोन विकार, मनोदशा विकार, रजोनिवृत्ति जनित रोग आदि रोग होते हैं ।
सहस्रार चक्र ( शीर्ष चक्र )
सहस्रार चक्र मस्तिष्क के ऊपर ब्रह्मरंध में अपस्थित 6 सेंटीमीटर व्यास के एक अध खुले हुए कमल के फूल के समान होता है । ऊपर से देखने पर इसमें कुल 972 पंखुड़ियां दिखाई देता है । इसमें नीचे 960 छोटी-छोटी पंखुड़ियां और उनके ऊपर मध्य में 12 सुनहरी पंखुड़ियां सुशोभित रहती हैं । इसे हजार पंखुड़ियों वाला कमल कहते हैं । इसका चिन्ह खुला हुआ कमल का फूल है जो असीम आनन्द के केन्द्र होता है । इसमें इंद्रधनुष के सारे रंग दिखाई देते हैं लेकिन प्रमुख रंग बैंगनी होता है । इस चक्र में अ से क्ष तक की सभी स्वर और वर्ण ध्वनि उत्पन्न होती है । पिट्यूट्री और पिनियल ग्रंथि का आंशिक भाग इससे सम्बंधित है । यह मस्तिष्क का ऊपरी हिस्सा और दाई आंख को नियंत्रित करता है । यह आत्मज्ञान, आत्मदर्शन, एकीकरण, स्वर्गीय अनुभूति के विकास का मनोवैज्ञानिक केन्द्र है ।
यह आत्मा का उच्चतम स्थान है । इस चक्र को देख कर व्यक्ति के स्वभाव और चरित्र का अनुमान लगाया जा सकता है । इसका विस्तार, रंग, गति, आभा और बनावट देख कर व्यक्ति की चैतन्यता, आध्यात्मिक योग्यता और अन्य चक्रों से समन्वय का अनुमान लगाया जा सकता है । अच्छा योगाभ्यास करने वाले साधक का चक्र ओजस्वी और शक्तिशाली होता है । सच्चे स्वप्न देखने की क्षमता विकसित हो जाती है । यदि इस चक्र में लचीलापन है तो इसका मतलब है कि व्यक्ति आसानी से अपनी आत्मा को शरीर से निकाल कर कहीं अन्यत्र ले जा सकता है । नीचे के बाकी 6 चक्रों से बिलकुल अलग यह एक अति विशिष्ट और उन्नत चक्र है । यह ईश्वरधाम और मोक्ष का द्वार है । जब यह चक्र अच्छी स्थिति में है तो अन्य चक्र स्वतः जागृत हो जाते हैं । जो साधक अपनी कुण्डलिनी जाग्रत कर लेते हैं तो कुण्डलिनी बाल रूप बाला त्रिपुरा सुन्दरी के रूप में ऊपर उठती है । थोड़ा और ऊपर पहुंचने पर वह यौवन को प्राप्त कर राजराजेश्वरी का रूप धरती है और सहस्रार चक्र तक वह संपूर्ण स्त्री ललिताम्बिका का रूप धर लेती है । जो साधक कुण्डलिनी को सहस्रार तक ले कर आते हैं, वे परमानन्द को प्राप्त करते हैं । जिसकी सर्वोच्च अवस्था समाधि है । कुण्डलिनी के इस जागरण को शिव और शक्ति का मिलन कहते हैं । इस मिलन से आत्मा का अस्तित्व खत्म हो जाता है और वह परमात्मा में लीन हो जाती है । इस चक्र पर ध्यान करने से संसार में किये गये बुरे कर्मों का भी नाश होता है । ऐसे साधक अच्छे कर्म करने और बुरे कर्मों का नाश करने में सफल हो जाते हैं । आज्ञा चक्र को सम्प्रज्ञात समाधि में जीवात्मा का स्थान कहा जाता है । क्योंकि यही दिव्य दृष्टि का स्थान है । उसे शिव की तीसरी आंख भी कहते हैं । मूलाधार से लेकर आज्ञा चक्र तक सभी चक्रों के जागरण की कुंजी सहस्रार चक्र के पास ही है । यही सारे चक्रों का स्वामी है।यह वास्तव में चक्र नहीं है । यह तो साक्षात तथा सम्पूर्ण परमात्मा और आत्मा है । जो व्यक्ति सहस्रार चक्र का जागरण करने में सफल हो जाते हैं, वे जीवन मृत्यु पर नियंत्रण कर लेते हैं । सभी लोगों में अंतिम दो चक्र सोई हुई अवस्था में रहते हैं । अतः इस चक्र का जागरण सभी के वश में नहीं होता है । इसके लिए कठिन साधना व लम्बे समय तक अभ्यास की आवश्यकता होती है । इसके देवता श्री भगवान शंकर हैं और बीज मंत्र ' ॐ ' है ।
*पंडित कृष्ण मेहता*
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