कोरोना की कहानियाँ... / रवीश कुमार
देख रहा था कि कोई एटीएम के बाहर आकर बैठ गया है। बाहर आते ही एक हट्ठा-कट्ठा आदमी रोने लगा। सामने उसकी साइकिल लगी थी ।साइकिल पर प्लास्टिक के खिलौने। तरह तरह के रंग और आकार वाले। उसने कहा कि पता नहीं क्या हुआ है। बच्चे बाहर ही नहीं आते हैं। मेरा खिलौना नहीं बिक रहा है। मेरे बच्चे दो दिन से भूखे हैं। मैंने कुछ पैसे देने चाहे। उसने लेने से मना कर दिया। कहने लगा कि राशन ख़रीद दीजिए। पैसा नहीं लूँगा। मैं ठग नहीं हूँ। यह कह कर रोने लगा। मुझे समझाना पड़ा कि मेरी हालत ऐसी नहीं है कि दुकान में जाकर इतना सामान ख़रीदूँ। तुम ये पैसे रख लो। तब भी न ले। बोला कि आपको विश्वास ही नहीं होगा। इसलिए पैसा नहीं चाहिए। आप चावल दाल और तेल ख़रीद दो। मुझे ख़ुद ही एक पहाड़ जैसी ख़बर का सामना करने जाना था। बहुत समझाया कि मैं पूरा भरोसा करता हूँ कि तुम ठग नहीं हो। कोई और समय होता तो राशन ख़रीद कर देता लेकिन पैसे रख लो। बहुत मुश्किल से लिया। फिर रोने लगा कि सही में मेरे बच्चे दो दिन से नहीं खाए हैं। अब मुझे मुड़ना पड़ा और कहना पड़ा कि तुम जो कह रहे हो वही सही है। सिर्फ़ तुम्हारे लिए सही नहीं है इस देश में लाखों लोगों के लिए सही है। यह मैं जानता हूँ। तुमने कुछ भी झूठ नहीं कहा। भले यह तुम्हारा सच न हो लेकिन लाखों लोगों का सच तो है। इसलिए ज़्यादा मत सोचो। खाना लेकर घर जाओ।
नोट- बहुत से लोग लिख रहे हैं कि बैंक का लोन माफ़ करवा दीजिए। फ़ीस नहीं दे पा रहे हैं। कमाई बंद है। दुकान बंद है। सरकार से कहिए कि कुछ पैसे दे।
दूसरा नोट- ख़ुशी की बात है कि भारत महान की राजधानी में 22000 करोड़ का सेंट्रल विस्ता बन रहा है। विस्ता का पित्ज़ा बनाकर खाते रहिए। ठूँस लीजिएगा। भर पेट।
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