. प्रस्तुति - रेणु दत्ता / आशा सिन्हा
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चित्रकूट में एक बार एक पत्र पुष्प विहीन ठूँठ पर भगवान की दृष्टि पड़ी। एक जड़ विहीन अमरबेल उस ठूँठ से लिपटी थी। अमरबेल की हरियाली से, वह ठूँठ हरा भरा लग रहा था।
सीताजी ने पूछा, "प्रभु ! इतने ध्यान क्या देख रहे हैं ?" रामजी ने कहा, "आप वह ठूँठ देखती हैं, कितना भाग्यशाली है, इसके पास अपनी कुछ शोभा नहीं है, फिर भी यह कितना धन्य है, कि इसे इस अमरबेल का संग मिला, इसकी पूरी शोभा इस बेल के कारण है।"
सीताजी कहने लगीं, "प्रभु ! धन्य तो यह अमरबेल है, जिसे ऐसा आश्रय मिल गया। नहीं तो यह जड़हीन बेल भूमि पर ही पड़ी दम तोड़ देती, कैसे तो ऊपर उठती, कैसे फलती फूलती, कैसे सौंदर्य को प्राप्त होती ? भाग्य तो इस बेल का है, वृक्ष का तो अनुग्रह है।"
अब निर्णय कौन करे ? दोनों ही लक्ष्मणजी की ओर देखने लगे। लक्ष्मणजी ने देखा कि उस वृक्ष और बेल से बनी छाया में एक पक्षी बैठा है। लक्षमणजी की आँखें भीग आईं। कहने लगे, "भगवान ! न तो यह वृक्ष धन्य है, न बेल। धन्य तो यह पक्षी है, जिसे इन दोनों की छाया मिली है।"
ध्यान दें, ब्रह्म तो वृक्ष जैसा अविचल है, वह बस है, जैसा है वैसा है, तटस्थ है। जब भक्ति रूपी लता इससे लिपट जाती है, तब ही यह शोभा को प्राप्त होता है। तो भगवान का मत है कि हमारी शोभा तो भक्ति से है। सीताजी का मत है कि भगवान के ही कारण भक्ति को सहारा है, भगवान की शरण ही न हो, तो शरणागत कहाँ जाएँ ? दीनबंधु ही न होते, तो दीनों को पूछता कौन ?
परन्तु लक्षमणजी का मत है कि धन्य तो मैं हूँ, माने वह जीव धन्य है, जिसे भक्ति और भगवान दोनों की कृपा मिलती है ।
जय श्रीराम 🙏
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