प्रस्तुति - रेणु दत्ता / आशा सिन्हा
एक किशोरी कन्या एक पूरूष की गोद में आकर बैठ जाती है! आस पास बैठे किसी भी व्यक्ति को कोई असहजता नही हुई! क्यूँ?
कन्या उस व्यक्ति की पूत्रि थी ! सम्बंध भाव का कारण है न केवल व्यक्तिगत रूप से बल्कि उन सभी के लिए भी जो दर्शक है ! सड़क किनारे रखे या दुकान पे रखे शिला खंड पे आप शीश नही नवाएँगे लेकिन जैसे ही शिला मंदिर की चौखट पे लगता है वंदनीय हो जाता है और जब श्री विग्रह रूप ले लेता है तो क्या कहना ! शिला नही बदलती भाव बदलता है !
गुरु जी कहते है कि भगवान से सम्बंध स्थापित करो और उस सम्बंध को वैसे ही निभाने का प्रयास करो जैसे जीवन में करते हो ! बस यहीं से एक समस्या प्रारम्भ होती है ! मेरे पीता जी मेरी माता जी और उनसे भी ऊपर मेरे दादा जी और दादी जी, मेरी बहन, मेरे अनुज और ज्येस्ठ भ्राता, मेरी पत्नी, मेरी संतान, मेरे मित्र और बोहोत से अन्य सम्बंध है जीवन में इन सभी के प्रति प्रेम का भाव पूष्ट इसलिए होता है क्यूँकि हम इनको जानते है इनसे वार्तालाप करते है या किया है ! हम इनको छू सकते है या छुआ था जीवन में कभी न कभी !
ऐसे भी रिश्ते है जो हमारे ही है किंतु हम चाह कर भी उनके प्रति प्रेम को महसूस नही कर पाते जैसे अपने पूर्वजों के प्रति जिनको हमने न कभी देखा न सुना है ! बोहोत से बच्चे ऐसे है जिनके माता पीता का साया उनके जन्म के समय ही उठ जाता है वो बच्चे कभी उनके प्रति किसी भाव को महसूस नही कर पाते !
केवल जानना पर्याप्त नही होता ! आप ऐसे लोगों से मिलेंगे जिनकी पारिवारिक शृंखला महान विभूतियों की है जिनको वो ही नही संसार जानता है किंतु वो उनके प्रति भी प्रेम को महसूस नही कर पाते ! सम्मान करते है किंतु प्रेम एक अलग भाव है जिसमें सम्मान स्वतः होता है !
तो प्रश्न है फिर भगवान से प्रेम कैसे होगा ?
उनको जान ने के लिए ग्रंथ है गुरु जी है किंतु उनको महसूस कैसे करे ताकि प्रेम उत्पन्न हो सके? प्रेम ही तो भक्ति के प्रथम सिड़ी है !
नारद भक्ति सूत्र कहता है "प्रेम की परिकास्ठा जो नीस्वार्थ भाव से भरी हो भक्ति कहलाती है!"
गुरु जी बोले भगवान को महसूस करना समस्त ब्रहम्मांड में सबसे सरल है जीवित में या निर्जीव में , साकार या निराकार किसी भी रूप में भगवान को मान लो जैसे तुम्हारा ह्र्दय स्वीकार करे और अब उनकी सेवा प्रारम्भ करो ! उन्हें अपना सर्वस्व मान लो उनके चरण पखारो, निराकार है तो मानसिक सेवा करो (मन में सोचो की तुम सेवा कर रहे हो) उनसे बातें करो, उनको बढ़िया से बढ़िया भोजन कराओ, अच्छे अच्छे वस्त्र पहनाओ, दिल खोल के अपने मन की बात बोलो ! उनका ध्यान रखो जैसे सांसारिक सम्बन्धों का रखते हो ! जैसे अपने पुत्र या पूत्रि का रखते हो !
स्वार्थ का स्थान संसार में भी नही है और भगवान के साथ बिलकुल भी नही है !
क्या एक पीता अपनी पूत्रि से इसलिए प्रेम करता है की वो उसको कुछ दे ? क्या एक पूत्र माता पीता से केवल इसलिए प्रेम करता है की वो उसको कुछ दे ? जब सम्बन्धों में वयोपार और स्वार्थ आ जाता है तब वो अर्थहीन हो जाते है ऐसे ही भगवान से प्रेम करने में इस स्वार्थ को वयोपार मध्य में मत लाओ ! ये याद रखी वो सर्व अंतर्यामी है साधारण मनुष्य भी मन के भाव को भांप लेता है वो भगवान है मन में ही रहते है !
तुम पाओगे की जिस रूप में तुमने उन्हें स्वीकार कर लिया है वो उसी रूप में तुम्हारे साथ लीला भी करेंगे ! विश्वास करो अगर तुम किसी निन्दित व्यक्ति में भी भगवान को देख पाए तो वो निन्दित जीव भी तुम्हारे साथ ऐसे व्यवहार करेगा जैसे भगवान से आपेक्षित है ! यही मूल अंतर है एक बुत में और श्री विग्रह में ! अंतर ये नही की एक बुत (पत्थर की मूरत) है और एक भगवान है भगवान तो दोनों में है तुम्हारा भाव किस मूरत में उन्हें स्वीकार करता है ये मूल अंतर है इसीलिए एक मूरती श्री विग्रह है और दूसरी पत्थर की मूरत !
अब अंतर सुनो ईश्वर से और संसार के सम्बन्धों में वो निभाते है ! वो सुनते है ( "He is a good listener." ) शब्दों के जाल से प्रभावित नही होते तुम्हें अपना मान लिया तो तार के ही रहेंगे भले ही तुम्हें पसंद आए या नही ! तुम बोलो की परेशान हूँ धन चाहिए तो अगर उनको सही नही लगता तुम्हारे लिए तो धन नहीं देंगे ! जैसे नारद जी ने माँगा कुछ रूप था और दे दिया वानर रूप ! ग़ज़ब खेल है हरी के !
"अंत भला तो सब भला!" ये शब्द उन्ही के प्रेमियों के लिए सत्य है ! क्यूँकि वो जो दंड देना है या जो प्रारब्ध के कष्ट है इसी जीवन में दे देंगे अगले जन्म के लिए कुछ नही छोड़ेंगे ! और जीतना इस भाव में अग्रसर होने लगोगे उतने पागल और दीवाने होने लगोगे ! कष्ट भी फीके लगेंगे और सुख भी ! हरी प्रेम की मदिरा सबसे नशीली है इसकी आदत छूटे नही छूटती और मनुष्य इनसे सम्बंध जुड़ने के पश्चात बाक़ी सब सम्बन्धों को बिसरा देता है !
महाराज बली का सब छिना, वरुण पाश में बांधा और फिर स्वर्ग से भी उत्तम स्थान दिया, ध्रुव जी को खूब अपमान सहन करवाया दूध मुहें बालक को वन के कष्ट भूख प्यास सब सहने दी फिर अति पूजनीय लोक दे दिया, बेचारे नारद जी को वनों में भटकवाया पूरे एक जन्म तड़पाया फिर कहीं अपनाया ग्रंथ भरे पड़े है हरी कि कौतुकी से ! बड़ा चंचल स्वभाव है गोविंद का पूरा आनंद लेते है भक्तों के प्रेम का किंतु भक्त को परीक्षा लगती है और लगनी भी चाहिए ! जो भी हो इस सब में जो आनंद है वो ब्रहम्मांड के सभी सुखों में भी नही है !
श्री सीता राम जी !
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