अध्याय ९ POST २
भगवान के स्वरूप की समझ।
प्रस्तुति - रेणु दता / आशा सिन्हा
मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेषवस्थितः॥
मुझ निराकार परमात्मा से यह सब जगत् जल से बर्फ के सदृश परिपूर्ण है और सब भूत मेरे अंतर्गत संकल्प के आधार स्थित हैं, किंतु वास्तव में मैं उनमें स्थित नहीं हूँ।
जैसे बीज ही वृक्ष हो जाता है, अथवा स्वर्ण ही अलंकार हो जाता है, वैसे ही मुझ एक का ही विस्तार यह जगह है। अव्यक्त दशा में यह जमा हुआ है, और वही विश्वा कार होते हुए मानो पिघल जाता है, इस प्रकार निराकार ब्रह्म त्रिलोक के रूप से साकार हुआ है। महत्त्व से लेकर देह तक यह संपूर्ण भूत मात्र मुझ में ही प्रतिबंधित है। पर मैं उनमें नहीं जैसे जल से ही फैन दिखाई देता है पर फैन में जल नहीं।
॥4॥
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः॥
वे सब भूत मुझमें स्थित नहीं हैं, किंतु मेरी ईश्वरीय योगशक्ति को देख कि भूतों का धारण-पोषण करने वाला और भूतों को उत्पन्न करने वाला भी मेरा आत्मा वास्तव में भूतों में स्थित नहीं है।
भूमि के भीतर से क्या घड़ों गागर का स्वयं सिद्ध अंकुर निकलता है??? वे तो कुम्हार की ही बुद्धि उत्पन्न होते हैं। अथवा समुद्र के पानी में क्या तरंग की खान रहती है?? वह क्या वायु का भिन्न भिन्न कार्य नहीं है?? कपास के पेट में क्या कपड़े की संदूक भरी रहती है?? वह तो केवल पहनाने हारे के दृष्टि से ही कपड़ा कहलाता है। यद्यपि स्वर्ण अलंकार बन जाता है तथा भी उसका स्वर्णत्व नहीं घटता। और जो अलंकार है वह पहने हारे की भावना के है अनुसार ही होते हैं। कहो प्रतिध्वनि से जो शब्द उठता है, अथवा दर्पण में जो रूप दिखाई देता है, वह पहले से ही वहां मौजूद रहता है?? या सचमुच में हमारे बोलने व देखने से होता है। वैसे ही मेरे इस निर्मल स्वरूप में जो पदार्थ की कल्पना स्थापित कराता है उसी के संकल्प के कारण पदार्थों का आभास होता है। यदि उस कल्पना स्थापित करने वाले प्रकृति का अंत हो जाए तो साथ ही भूताभाश भी लुप्त हो जाता है। और एक शा मेरा शुद्ध स्वरूप ही बचा रहता है।
आप ही आप चक्कर खाने से जैसे गिरी कंदर घूमते दिखाई देते हैं, वैसे ही अपने ही कल्पना के कारण अखंड ब्रह्म की जगह भूत मात्रा दिखाई देती है। वही, करना छोड़कर देखो तो मैं सब पदार्थों में हूं, और सब पदार्थ मुझ में है यह बात सपना में भी आने योग्य नहीं है।
इसलिए हे प्रियतम इस प्रकार मैं विश्व का आत्मा हूं। जो इस मिथ्या भूत ग्राम में सर्वदा भावना करने योग्य है। जैसे सूर्य की किरणों के आधार पर अवास्तविक मृगजल दिखाई देता है। वैसे ही मेरे अधिष्ठान पर सब भूत मात्रा दिखाई देता है, और वह मेरी ही भावना करता है। इस प्रकार मैं भूत मात्र का उत्पन्न करने वाला हूं, तथा कि उन सभी से अभिन्न हूं, जैसे प्रभा और सूर्य दोनों एक ही है। अब तुम हमारा ऐश्वर्य योग अच्छी तरह देख चुके। अब कहो, क्या इस प्राणियों के भेद का कुछ संबंध है??? तात्पर्य यह कि यथार्थ में प्राणी मुझसे भीन्न नहीं है। और मुझे भी मुझे भी कभी प्राणियों से भिन्न मत मानो।
॥5॥
भगवान श्रीकृष्ण कहते है की जैसे प्रभा और सूर्य दोनों एक ही है, वैसे ही प्राणी मुझसे भीन्न नहीं है। और मुझे भी मुझे भी कभी प्राणियों से भिन्न मत मानो।
अस्तु।
सद्गुरु नाथ महाराज की जय।
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