**परम गुरु हुजूर मेहताजी महाराज-
कल से आगे:-( 77)
- 15 अक्टूबर 1941 को सतसंग में नीचे का शब्द पढ़ा गया- ऐसा को है अनोखा दास, जापे सतगुरु हुए हैं दयाल री।।( प्रेमबानी, भाग 1, बचन-4, शब्द)
पाठ के बाद हुजूर ने पूछा आप लोगों में से कौन ऐसे दास हैं जिन पर सतगुरु दयाल प्रसन्न है ? उत्तर में बहुत थोड़े सतसंगियों ने हाथ उठाये। एक साहब ने कहा कि यह शब्द परम गुरु हुजूर महाराज ने परम गुरु महाराज साहब के लिए लिखा था। हुजूर मेहताजी महाराज ने एक घटना का वर्णन किया- संभवत: सन् 1915 का जिक्र है। हुजूर साहबजी महाराज हरीपर्वत वाली कोठी में तशरीफ रखते थे और मैं भी कुछ दिनों की रुखसत लेकर यहाँ आया था । छुट्टी खत्म होने पर जब मैं वापस जाने लगा तो मेरे दिल में यह ख्वाहिश हुई कि चलने से पहले दर्शन हो जायँ। इसलिए मैं कोठी के करीब ही रहा।
शुभ संयोग से हुजूर साहबजी महाराज बाहर तशरीफ ले आए और लोग दोनों तरफ कतारों में खड़े हो गए। हुजूर कुर्सी पर विराज गए और एक करमंडल से अमृतरस पिलाना शुरू कर दिया। आगे के चार पाँच सतसंगियों के पिलाने के बाद जब मेरी बारी आई तब मैंने यह मुनासिब न समझा कि जब तक हुजूर करमंडल न हटावें मैं अपना हाथ हटा लूँ।
मौज से हुजूर ने करमंडल नहीं हटाया और न मैंने हाथ हटाये, यहाँ तक कि करमंडल बिल्कुल खाली हो गया। इसके बाद जिन साहब की बारी आई उन्होंने मेरी तरकीब बरतनी चाही परंतु हुजूर ने फरमाया-" इस तरह की बात सबके लिए नहीं होती" और करमंडल हटा लिया।।
हुजूर मेहताजी महाराज ने पूछा -इस शब्द में अमृतरस का जिक्र है; इसलिए अब अमृत रस कौन-कौन पीना चाहते हैं? जवाब में बहुतेरे सतसंगियों ने हाथ उठाकर अमृतरस पीने की लालसा प्रकट की। हुजूर ने फरमाया- कल शाम को अमृतरस पीने के लिए सब लोग अपने-अपने गिलास लेकर आवें
क्रमशः
🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**
**परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज -
[भगवद् गीता के उपदेश]
- कल से आगे:- इस दुनिया में दो प्रकार के जीव बसते हैं- दैवी स्वभाव वाले और आसुरी स्वभाव वाले।
दैवी स्वभाव वाले लोगों का मैं विस्तारपूर्वक वर्णन कर चुका हूँ अब आसुरी स्वभाव वाले लोगों का हाल सुनो । ये लोग काम काज के संबंध में उचित और अनुचित के विवेक से रहित होते हैं और सोच ,सदाचार और सत्य से सर्वथा शून्य है । ये कहते हैं कि यह संसार केवल झूठा पसारा है, न इसका कोई आसरा है न मालिक (ईश्वर)। आपस के मेल से इसकी उत्पत्ति हुई है, जिसकी तह में केवल काम अंग क्रिया कर रहा है।
ऐसी समझ वाले मुर्दादिल, अज्ञानी और निर्दई मनुष्य दुनिया को नष्ट करने के लिए वैर- भाव लेकर पैदा होते हैं ऐसी इच्छाओं के दास बन कर, जिनसे कभी तृप्ति न हो, दंभ, मान और मद से भरे हुए अज्ञानता के कारण बुरे विचारों में बरतते हुए, बुरी वासनाओं के वशीभूत मद क्रिया करते हैं । क्रमशः
🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**
**परम गुरु हुजूर महाराज-
प्रेम पत्र -भाग 2- कल से आगे:-
[ 3. क्रोध का अंग]:-
1-यह अंग भी बहुत जबर है और जड इसकी त्रिकुटी में है । जब जब कामना मन के मुआफिक पूरी नहीं होती है, तब ही क्रोध अंग जागता है, कभी अपने ऊपर जो कसर अपनी नजर आती है और कभी दूसरे पर जो उसकी तरफ मरम कसर डालने का इसके मन में पैदा होता है।।
2- इस अंग के साथ चैतन्य की धार शरीर में या बाहर फैल कर किसी कदर भस्म हो जाती है और इस वास्ते अभ्यासी को चाहिए कि इस अंग से बहुत डरता रहे और जहाँ तक हो सके, इसमें जान कर या भूल कर कभी बर्ताव न करें । सिर्फ जरूरत के मुआफिक बरताव चाहिये कि जिसमें बंदोबस्त अंतर या बाहर दुरुस्ती के साथ जारी रहें और हर एक अंग या शख्स अपनी कार्यवाही मुनासिब करता रहे।
3- जो कोई साधारण से ज्यादा जोर सुरत के चढाने के लिए भजन या ध्यान में देते हैं, उनको अक्सर यह दोनों अंग यानी काम और क्रोध तो अंतर में ज्यादा सताते हैं, बल्कि क्रोध अंग ज्यादा जबर होकर जरा जरा सी बात में बाहर प्रकट हो जाता है। क्रमशः
🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**
**राधास्वामी!!03-05-2021-
आज सुबह सतसंग में पढे गये पाठ:-
(1) राधास्वामी दया प्रेम घट आया। बंधन छूटे भर्म गँवाया।।-(भूल भरम धोखा सब भागा। राधास्वामी चरन बढा अनुरागा।।) (सारबचन-शब्द-16-पृ.सं.145,146-New York ब्राँच-अधिकतम उपस्थिति-76)
(2) गुरु प्यारे से प्यारी मत कर मान।।टेक।। सेवा कर तन मन धन अरपो। सरधा लाय धरो उन ध्यान।।-(राधास्वामी तेरा काज बनावें। पहुँचावें तोहिं अधर ठिकान।।) (प्रेमबानी-3-शब्द-42-पृ.सं.38,39) सतसंग के बाद:-
(1) राधास्वामी मूल नाम।।
(2) अतोला तेरी कर न सके कोई तोल।।
(3) बढत सतसँग अब दिन दिन। अहा हा हा ओहो हो हो।।(प्रे. भा. मेलारामजी-फ्राँस!) 🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**
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